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विकास और उत्सर्जन के बीच हम कैसे बनाए संतुलन

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के पेरिस समझौते के तहत हर देश को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान के लक्ष्य तय करने हैं। इस दिशा में सभी देशों का सम्मिलित प्रयास पृथ्वी के बढ़ते तापमान पर 1.5...

विकास और उत्सर्जन के बीच हम कैसे बनाए संतुलन
विद्या सौंदाराजन जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञFri, 05 Apr 2019 11:51 PM
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जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के पेरिस समझौते के तहत हर देश को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान के लक्ष्य तय करने हैं। इस दिशा में सभी देशों का सम्मिलित प्रयास पृथ्वी के बढ़ते तापमान पर 1.5 डिग्री सेल्सियस तक लगाम लगाएगा। साथ ही, इससे कार्बन उत्सर्जन कम होगा और विश्व जलवायु-अनुकूल भविष्य की ओर बढ़ेगा। इस दिशा में भारत ने बहुत महत्वाकांक्षी प्रतिबद्धता जताई है। इसके दो बुनियादी तत्व हैं। भारत ने राष्ट्रीय निर्धारित योगदान के तहत उत्सर्जन की तीव्रता को 33 से 35 प्रतिशत घटाने का लक्ष्य तय किया है। भारत इस लक्ष्य को वर्ष 2030 तक पूरा करेगा। भारत ने उत्सर्जन को घटाने का यह लक्ष्य वर्ष 2005 के उत्सर्जन के आधार पर किया है। इसके अलावा भारत गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा की खपत में वृद्धि करेगा। वर्ष 2030 तक भारत में स्थापित ऊर्जा उत्पादन क्षमता का 40 प्रतिशत हिस्सा गैर-जीवाश्म ईंधन से आएगा।   
एनर्जी ऐंड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट (टेरी) ने भारत के इस लक्ष्य पर सिलसिलेवार शोध के बाद बताया है कि इन दो बड़े लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जलवायु-अनुकूल विकसित तकनीक की जरूरत पड़ेगी। लक्ष्य प्राप्त करने के लिए यह काम जल्दी करना पड़ेगा। टेरी ने भारत द्वारा तय लक्ष्यों की प्रशंसा भी की है। 
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी ने पिछले सप्ताह एक अध्ययन का प्रकाशन किया है, जिसमें इन लक्ष्यों की महत्वाकांक्षा और इस दिशा में अब तक के सरकारी प्रयासों पर सवाल उठाए गए हैं। ऊर्जा उत्पादन में कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता को घटाने के लिए गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा उत्पादन को बड़े स्तर पर बढ़ावा देना होगा। गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने अभियान और परियोजनाएं चला रखी हैं, लेकिन इस दिशा में कामयाबी के लिए बड़े पैमाने पर गैर-जीवाश्म ईंधन क्षमता को बढ़ाना होगा। जब हम गैर-जीवाश्म ईंधन क्षमता को बढ़ाएंगे, तो जीवाश्म ईंधन पर हमारी निर्भरता घटेगी और कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य के अनुरूप घटेगा। ज्यादा क्षमता वाले गैर-जीवाश्म ईंधन संचालित ऊर्जा उत्पादन केंद्र भारत के लिए जरूरी हैं। ऐसा करते हुए यह भी ध्यान रखना होगा कि अनुमानित उच्च विकास में भारत पीछे न रह जाए। विकास की तेज गति के लिए भारत को ज्यादा ऊर्जा की जरूरत पडे़गी। यह भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है। 
भारत सरकार ने जो अनुमान लगाया है, उसके अनुसार, भारत अपने लक्ष्य को एक दशक पहले ही प्राप्त कर लेगा। सरकार के अनुमान का आधार अक्षय ऊर्जा से मिल रही प्रेरणा है। लेकिन कोयले के भविष्य को लेकर अभी भी एक सवाल है। वर्ष 2018 में स्वीकार किया गया नेशनल इलेक्ट्रिसिटी प्लान (एनईपी) का लक्ष्य है, पेरिस समझौते के तहत तय लक्ष्यों को समय से पहले प्राप्त करना और इसके लिए अक्षय ऊर्जा विकास को रास्ते पर रखना। भारत अगर कोयला आधारित नए पावर प्लांट लगाना छोड़ दे, तो वह जलवायु परिवर्तन के मोर्च पर वैश्विक अगुवा बनने में सक्षम है। एनईपी के शुरुआती प्रारूप में यह बात भी शामिल थी कि वर्ष 2022 के बाद कोई कोयला आधारित पावर प्लांट नहीं लगेगा, लेकिन अंतिम प्रारूप में कदम पीछे खींच लिए गए और 90 से ज्यादा कोयला आधारित पावर प्लांट को योजना में शामिल कर लिया गया। नए प्लांट लगेंगे, तो कार्बन उत्सर्जन की चुनौती बढ़ेगी। नए प्लांट लगाना जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए निर्धारित योगदान के अनुरूप नहीं होगा। अत: भारत के विकास पथ पर कोयले की भूमिका यथावत रहने वाली है। हालांकि कोयला ही अकेला निर्णायक तत्व नहीं है, जैसा कि वह कुछ दशक पहले हुआ करता था।     
राष्ट्रीय कोयला उत्खनन कंपनी कोल इंडिया की वर्ष 2018 की एक रिपोर्ट यह बताती है कि भविष्य में सौर और अक्षय ऊर्जा उत्पादन की लागत घटेगी। इससे मंद या कम कार्बन निवेश को बढ़ावा मिलेगा। अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा। वर्ष 2017 में देश में पहली बार जीवाश्म ईंधन क्षेत्र की तुलना में गैर-जीवाश्म ईंधन क्षेत्र में निवेश ज्यादा हुआ है। अत: जलवायु परिवर्तन संबंधी लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में सतत विकास के साथ ही परिवहन ढांचा, निर्माण और ऊर्जा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश निर्णायक होगा। 
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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