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बदलती धरती का मिजाज और शहरों का वसंत

पुष्पधन्वा की ऋतु है वसंत। उसके पुलक के, सौंदर्य के विस्तार की ऋतु है वसंत। अनंत इच्छाओं के प्रस्फुटन और प्रगटन की ऋतु है वसंत। माघ शुक्ल पंचमी को श्री के नूपुर और सरस्वती की वीणा की रुनझुन सी वसंत...

बदलती धरती का मिजाज और शहरों का वसंत
नीरजा माधव साहित्यकारTue, 28 Jan 2020 10:51 PM
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पुष्पधन्वा की ऋतु है वसंत। उसके पुलक के, सौंदर्य के विस्तार की ऋतु है वसंत। अनंत इच्छाओं के प्रस्फुटन और प्रगटन की ऋतु है वसंत। माघ शुक्ल पंचमी को श्री के नूपुर और सरस्वती की वीणा की रुनझुन सी वसंत के आने की आहट मिलने लगती है। इसलिए यह पंचमी श्री पंचमी है। संपूर्ण कलाओं, काव्य और संगीत के दिव्य सौंदर्य की देवी सरस्वती की उपासना का दिन है पंचमी। देवी का एक स्वरूप यह भी है कि वह सर्वकाम प्रदायिनी है। काम यानी इच्छाएं। कुछ तो ऐसी बात रही होगी, जब ब्रह्म में भी अपने अकेलेपन से ऊबकर एक इच्छा जागी कि मैं अकेला हूं, बहुत हो जाऊं- एकोऽहम् बहुस्याम।  सनातन धर्मी सृष्टि की उत्पत्ति का प्रथम दिन मानते हैं चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को और चैत्र-वैशाख, दोनों महीने वसंत माने गए हैं। इन्हें माधव-मास भी कहा गया है- सोलह कलाओं से पूर्ण कृष्ण के महीने। कुछ तो कारण रहा होगा कि ब्रह्म के भीतर सृष्टि की इच्छा वसंत ऋतु में हुई।
इच्छाओं का यह प्रस्फुटन ही वर्ष के एक काल-खंड को ऋतुराज बना देता है। और जब यह राजा आने को होता है, तो उसके आने की दुंदुभि पहले ही बज जाती है। वसंत की अगवानी में बजती है  प्रकृति की बांसुरी। आमों में बौर आ गए, सरसों फूल गई, पलाश एकाएक दहक उठे, तो कुछ वृक्ष लाज-हया छोड़कर निपात हो गए। पलाश की दहक, मंजरियों की महक, कोयल की कूक बरबस ही वसंत-रास का सृजन कर उठती है और होंठ गुनगुना उठते हैं- वन वन फूले टेसुआ, बगियन बेलि।
कितनी विचित्र बात है कि इसी वसंत में फाल्गुन पूर्णिमा की रात पुराना संवत्सर जलकर राख होता है और दूसरे दिन उसी राख को एक-दूसरे के ऊपर भस्म की तरह पोतकर लोग फाग खेलने का आनंद लेते हैं। बूढ़े-जवान ढोलक की थाप पर गा उठते हैं- शिवशंकर खेलें फाग, गौरा संग लिए।  नई इच्छाओं के साथ नया संवत्सर शुरू होता है, तो इसी वसंत की गोद से। 
मैं किताबों से निकलकर वसंत को बाहर ढूंढ़ने के प्रयास करती हूं। धीरे-धीरे उतर क्षितिज से आ वसंत-रजनी  जैसी पंक्तियों में महादेवी के आह्वान की बेचैनी को प्रत्यक्ष महसूस करना चाहती हूं, पर कहां पाऊं वसंत की वह टीस? महुए, पीपल, पाकड़, गूलर, नीम, सब सपना हो गए। इक्का-दुक्का गांवों के वीरान रास्तों से गुजरते कहीं दिखाई पड़ जाते हैं। अब जब ये घनेरे वृक्ष ही नहीं, तो कोयल और पपीहा कहां जाकर अपनी टेर सुनाएं? वे अब हमारे कस्बों, शहरों व महानगरों में शांति भंग की आशंका से घबड़ाकर कहीं सूने विजन प्रदेश में यदा-कदा अपनी विह्वलता टांक आते हैं। अर्थ के प्रपंच ने लोगों को इतना मोहाविष्ट किया हुआ है कि अपने दरवाजे के बाहर नीम, आंवला या कोई भी छतनार वृक्ष न लगाकर अर्थ के लिए वे ऊंचे-ऊंचे टावर लगाने की अनुमति दे रहे हैं। कहीं पढ़ा कि इन टावरों से निकलने वाली तरंगों से तितलियां, मधुमक्खियां या गौरैया जैसी सुकुमार चिड़ियों का अस्तित्व समाप्त होने को है, तो बहुत विश्वास नहीं हुआ, लेकिन अपने लॉन में लगे रूपमंजरी, गंधराज, कनेर के फूलों पर मंडराने वाली रंग-बिरंगी तितलियां जब एकाएक झुंड में दिखना बंद हो गईं और कभी-कभी किसी मधुमक्खी को अकारण ही जमीन पर गिरकर तड़पते और मर जाते देखा, तो पड़ोस में खडे़ दैत्यनुमा दो टावरों की ओर मेरा भी ध्यान गया। 
चिड़ियों को अपने आंगन में उतरते देखना मेरा प्रिय शौक है और इसके  लिए प्रतिदिन सुबह प्रांगण में चावल के दाने डालना मेरी आदत में शामिल है। धीरे-धीरे कम होती गौरैया की संख्या भी मेरी चिंता की वजह है। लेकिन सुखद यह है कि लोगों का ध्यान बेरंग होती धरती के शृंगार की ओर गया है। विश्व भर के देशों में धरती के बदलते मिजाज पर चिंतन-मनन शुरू हो गया है। 
ठिठुरती ऋतु को पीछे धकेलकर वसंत मुस्करा रहा है। धड़कनों पर ध्यान दें, तो लगता है कि उनके आरोह-अवरोह में भी वसंत के आने की आहट घुल गई है। कोई अव्यक्त रहस्य व्यक्त होने वाला है। कम ही सही, पेड़ों पर नए पल्लवों का शृंगार सजने लगा है। दूर कहीं किसी नीम या आम के पत्तों में छिपी कोयलिया का स्वर कुछ अधिक ही विह्वल हो उठा है। हवा में कुछ और ताजगी आ गई है। मन कुछ अधिक ही मृगछौना सा भटकने लगा है। क्यारियों और गमलों में लगे फूलों की रंगत कुछ और ही निखर उठी है। 
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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