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आधुनिक दांपत्य में मजबूती लाने का त्योहार

हर वर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को हिंदू विवाहित स्त्रियां अपने-अपने पति की दीर्घायु के लिए उपवास रखती हैं और शाम को चांद के उदय के बाद उनका व्रत पूर्ण होता है। इस त्योहार को लेकर मेरे...

आधुनिक दांपत्य में मजबूती लाने का त्योहार
चित्रा मुद्गल  वरिष्ठ साहित्यकारFri, 26 Oct 2018 11:52 PM
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हर वर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को हिंदू विवाहित स्त्रियां अपने-अपने पति की दीर्घायु के लिए उपवास रखती हैं और शाम को चांद के उदय के बाद उनका व्रत पूर्ण होता है। इस त्योहार को लेकर मेरे मन में कई समाजशास्त्रीय विचार उभरते रहे हैं। 
करवा चौथ का यह त्योहार संबंधों में जुड़ाव और रिश्तों में बड़प्पन को जीवंत बनाए रखने का एक माध्यम भी है। इसमें मुझे संबंधों का एक ऐसा प्रकटीकरण मिलता है, जो स्त्री को उसके मायके और ससुराल से जोड़ता है। गांवों में तो शादीशुदा स्त्रियों को इस दिन का साल भर इंतजार रहता है, क्योंकि अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों और दैनिक व्यस्तताओं के कारण वे आपस में अमूमन हिल-मिल नहीं पातीं। ग्रामीण जीवन में जो सहज सामूहिकता अब भी बची हुई है, शहरी जिंदगी में वह मुश्किल से मिल पाती है।
मुझे याद है कि करवा चौथ से हफ्तों पहले से कुम्हारों के घरों में चाक पर करवा बनने लगता था। व्रत के एक-दो दिन पहले वे घर-घर पहुंचाते थे और इसके बदले उन्हें अनाज दिया जाता था। तीज, करवा चौथ, दीपावली, छठ, ये सभी ऐसे पर्व-त्योहार हैं, जिनमें परंपरागत रूप से मिट्टी के पात्रों की जरूरत होती है, जिनसे कुम्हारों की रोजी-रोटी चलती है। इसी सामाजिक-आर्थिक पहलू के कारण मैं मानती हूं कि हमारे तीज-त्योहार सामाजिक जीवन में एक-दूसरे पर हमारी निर्भरता को बनाए रखने में सहायक हैं। पारस्परिक सहयोग के इस भाव को करवा चौथ का त्योहार मजबूत करता है। इससे सबकी जरूरतें पूरी होती हैं।
इस त्योहार का संबंध हमारी खेती-किसानी से भी है। करवे में धान की नई फसल की बालियां खोंसी जाती हैं। दरअसल, कार्तिक माह में धान की नई फसल लगभग तैयार हो चुकी होती है। प्रकृति के साथ यह जुड़ाव स्त्री की सेहत, उसके मनोविज्ञान और कुल मिलाकर उसके आत्मबल को बढ़ाने वाला है। उपवास, फलाहार के दर्शन के पीछे शारीरिक संतुलन साधने की ही चेष्टा है। उपवास न सिर्फ मोटापा से निजात दिलाते हैं, बल्कि इंसान का आत्मबल भी बढ़ाते हैं। 
दिन भर के उपवास के बाद चंद्रोदय के वक्त जब सज-धजकर विवाहित स्त्रियां करवे की डाली के साथ चांद का दर्शन करती हैं और छलनी में पति का चेहरा देखकर मिट्टी के दीपक, करवे, फल-फूल, जल आदि के साथ उनकी लंबी आयु की कामना करती हैं, तो पूरी प्रकृति यानी मिट्टी, जल, धान की बालियां, और चांद वगैरह इसके साक्षी होते हैं। पति उन्हें अपने हाथों से जल पिलाकर पत्नियों का व्रत पूरा कराते हैं। परस्पर समर्पण और प्रेम का यह क्षण अत्यंत भावुक करने वाला होता है। यही आत्मीयता तो संबंधों को प्रगाढ़ बनाती है। 
परंपराएं युग-काल निरपेक्ष नहीं होतीं, फिर तो वे जड़ता का शिकार हो जाएंगी। जिस तरह संबंधों की मजबूती के लिए उसमें नूतन एहसास का होना अनिवार्य होता है, उसी तरह परंपराओं को भी निर्वाह लायक बनाए रखने के लिए युग-काल उसे परिमार्जित करते हैं। करवा चौथ की एक खूबसूरती यह है कि अब कई पति भी अपनी पत्नी के लिए यह व्रत रखने लगे हैं। मैं इसका स्वागत करती हूं। रूढ़ किस्म की पुरुष मानसिकता को बढ़ावा देने वाली परंपराओं और प्रथाओं के लिए अब किसी भी भद्र समाज में कोई जगह नहीं है। आखिर विधवा के घर के कोने में सादे कपड़े में एक वक्त खाना खाकर रहने जैसी कुप्रथा का कोई समर्थन क्यों करे? हम तो रंंग और रोशनी का उत्सव मनाने वाले समाज रहे हैं, फिर किसी स्त्री की जिंदगी को रंगहीन बनाने का विरोधाभास क्यों जिएं?
विधवा होकर भी मैं रंगीन साड़ी पहनती हूं और बिंदी लगाती हूं और आज भी हर साल करवा चौथ को बहू के साथ छत पर चांद को साक्षी मानकर अपने स्वर्गीय पति को याद करती हूं। स्त्री-पुरुष संबंधों में बिखराव और तरह-तरह के तनावों से तार-तार हो रहे आधुनिक दांपत्य जीवन में यदि करवा चौथ जैसे त्योहार प्रेम और मजबूती लाते हैं, तो उसका स्वागत होना चाहिए। फिर इसे मनाए जाने को लेकर कुछ उग्र नारीवादी सोच की महिलाएं क्यों वितंडा खड़ा करती हैं, यह बात मुझे समझ में नहीं आती।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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