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किताब और विमोचन के रिश्ते पर खड़े होते सवाल

जैसे यह पुस्तक विमोचन की राजधानी ही हो। लंदन में प्राय: हर रोज एक-दो नहीं, वरन चार या पांच पुस्तकों का विमोचन होता है। इन विमोचन समारोहों में प्रकाशक की ओर से खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था होती है और...

किताब और विमोचन के रिश्ते पर खड़े होते सवाल
महेंद्र राजा जैन  वरिष्ठ हिंदी लेखकFri, 25 May 2018 01:03 AM
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जैसे यह पुस्तक विमोचन की राजधानी ही हो। लंदन में प्राय: हर रोज एक-दो नहीं, वरन चार या पांच पुस्तकों का विमोचन होता है। इन विमोचन समारोहों में प्रकाशक की ओर से खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था होती है और इनमें जाने-माने साहित्यकार, समीक्षक, संपादक आदि शामिल होते हैं। यह सब न जाने कब से चला आ रहा है, पर अब इस आयोजन के प्रयोजन पर ही सवाल उठने लगे हैं। ब्रिटिश लेखकों के संगठन ‘सोसायटी ऑफ ऑथर्स’ ने कुछ समय पहले अपने सदस्यों से यह पूछा था कि विमोचन क्यों होते हैं और इनको कौन करवाता है? प्राप्त उत्तरों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि अधिकांश लेखक विमोचन पसंद नहीं करते। वैसे दुनिया में ज्यादातर जगहों की तरह ही वहां भी पुस्तक विमोचन के आयोजन प्रकाशक ही कराते है। इसको बिजनेस मॉडल का एक हिस्सा माना जाता है।
जासूसी उपन्यास लेखिका पीडी जेम्स ने विमोचन की आवश्यकता पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए संदेह  जताया कि विमोचन से न तो लेखक को प्रसन्नता होती है और न उसकी पुस्तक का प्रचार ही हो पाता है। एक अन्य लेखक जॉन मोर्टिमर की राय में विमोचन की अपेक्षा लेखकों का व्यक्तिगत रूप से अलग-अलग शहरों में जाकर किताबों की दुकानों पर उपस्थित रहना पुस्तक की बिक्री बढ़ाने में अधिक सहायक होता है, क्योंकि जब तक विमोचन होता है, तब तक तो प्राय: पत्र-पत्रिकाओं में उस पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित हो चुकी होती है। लेखिका पेनीलोप लवली के अनुसार, विमोचन समारोह बिना बात का दिखावा होते हैं। ये समारोह जितने भव्य होते हैं, पुस्तक उतनी ही कम महत्वपूर्ण होती है। अच्छी व महत्वपूर्ण पुस्तकों की सूचना तो बिना किसी शोर-शराबे के पाठकों को अपने आप मिल जाती है। इसके विपरीत प्रसिद्ध जीवनी लेखिका जेनी आगलो, जो प्रकाशक चाटो ऐंड विंडस की साहित्य संपादिका भी हैं, यह मानती हैं कि पुस्तकों की दुकानों में लेखकों द्वारा हस्ताक्षरित प्रतियां बेचना एक प्रकार से बड़ा उबाऊ  और अकेलेपन का काम होता है। अत: लेखक ने वर्षों के श्रम से जो पुस्तक तैयार की है, उससे उसे थोड़ी राहत दिलाने, उसे ‘चीयर अप’ करने के लिए विमोचन पार्टी आयोजित करने में कोई हर्ज नहीं है। ब्रिटेन और अमेरिका ही नहीं, प्राय: सभी यूरोपीय देशों में प्रकाशक द्वारा आयोजित विमोचन कार्यक्रम (जो वास्तव में भव्य  होते हैं) अच्छी-खासी पार्टी होते हैं। अक्सर ये आयोजन किसी होटल में ही रखे जाते हैं और डिनर इन पार्टियों का प्रमुख भाग होता है।
यह कहना कठिन है कि भारत में पुस्तक विमोचन की प्रथा कब शुरू हुई या किसने शुरू की, मगर यहां पुस्तक विमोचन की ‘प्रथा’ अब इस प्रकार स्थापित हो चुकी है कि पुस्तक मेलों में प्रतिदिन ही आठ-दस या अधिक पुस्तकों का विमोचन होता है। ऐसी भी पुस्तकें हैं, जिनका विमोचन आठ या दस बार तक हो जाता है। मेले में पुस्तक विमोचन प्रकाशक के लिए प्राय: सस्ता सौदा होता है, क्योंकि उसे न तो खाने-पीने का कोई आयोजन करना पड़ता है और न ही कोई और बड़ा खर्च। अब तो देखा यह भी जा रहा है कि लेखक स्वयं अपने खर्च से विमोचन करवाने लगे हैं। कभी-कभी तो यह भी देखा जाता है कि एक ही पुस्तक का विमोचन एक से अधिक शहरों में हो रहा है। एक समाचार के अनुसार, कुछ वर्ष पूर्व राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा में एक लोकार्पण के दौरान मंच पर आसीन अतिथियों को पुष्प गुच्छ की बजाय दो किलो आलू के पैकेट बांटे गए। कहा गया कि आलू राजनीतिक और पारिवारिक संदर्भ रखते हैं। महंगे होते आलू आम आदमी की जिंदगी को मुश्किल कर रहे हैं, इसलिए आलू चेतना जरूरी है। कुछ समय पहले एक लेखक ने किताब की  बजाय उसके आवरण का लोकार्पण करा दिया। 
अंग्रेजी में जॉरेड डीस ने तो पुस्तक लोकार्पण समारोह आयोजित करने के संबंध में लगभग 50 पृष्ठों की एक छोटी-मोटी पुस्तिका ही लिख डाली है, जिसमें लेखकों और प्रकाशकों को बतलाया गया है कि पुस्तक के अधिक से अधिक प्रचार के लिए कम से कम खर्च में विमोचन किस प्रकार किया या कराया जा सके।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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