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रोजगार के स्थानीय अवसर और बाहर से आए लोग

मध्य प्रदेश के नए मुख्यमंत्री कमलनाथ के इस बयान पर खासा विवाद हो गया है कि उत्तर प्रदेश-बिहार से आकर लोग यहां नौकरियां हासिल कर लेते हैं, जिससे मध्य प्रदेश के युवा नौकरी से वंचित हो रहे हैं। उन्होंने...

रोजगार के स्थानीय अवसर और बाहर से आए लोग
बद्री नारायण, निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान Thu, 20 Dec 2018 10:34 PM
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मध्य प्रदेश के नए मुख्यमंत्री कमलनाथ के इस बयान पर खासा विवाद हो गया है कि उत्तर प्रदेश-बिहार से आकर लोग यहां नौकरियां हासिल कर लेते हैं, जिससे मध्य प्रदेश के युवा नौकरी से वंचित हो रहे हैं। उन्होंने यह नीति भी बना दी है कि निजी कंपनियों को 70 प्रतिशत रोजगार प्रदेश के युवाओं को देना होगा। ऐसे बयान और ऐसी नीतियां नई नहीं हैं। शिवसेना के उद्धव ठाकरे, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे तो ऐसे बयान  देते ही रहे हैं, गुजरात में भी स्थानीय को महत्व देने की बातें उठती रही हैं। झारखंड में स्थानीय युवाओं के लिए ऐसी ही नीतियां बनी हैं। लेकिन कमलनाथ के बयान पर ज्यादा विवाद का कारण यह है कि यह उस कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री का बयान है, जिसे ऐसे मामलों में उदार माना जाता है। 
लेकिन एक और पृष्ठभूमि पर विचार भी जरूरी है कि भारतीय समाज में सतत रूप से बेरोजगारी बढ़ रही है। रोजगार के अवसरों का विस्तार और विकास रुक सा गया है। नए रोजगार सृजन भी थमा हुआ दिख रहा है। ऐसे में, हर जगह एक असुरक्षा बोध फैलता जा रहा है। कई समाज अपने दुर्दिन के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उन्हें लगता है कि उनका अवसर किसी बाहर के आदमी को मिल जा रहा है। बाहर से आने वाले प्रवासियों के प्रति घृणा, बेगानेपन और हिंसा का भाव विकसित हो रहा है। अभी जो दुनिया के हाल हैं, उसमें यह यूरोपीय और अमेरिकी देशों में भी देखा जा रहा है। हालांकि वर्ल्ड ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2005 विश्व भर में प्रवसन और विकास पर किए गए अपने अध्ययनों में यह बताता है कि जब प्रवासी अपने गृहक्षेत्र से किसी जगह पर जाता है, तो वह वहां के आर्थिक-सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है। वह उन समाजों के रोजगार के अवसरों को कम नहीं करता, वरन नए अवसर सृजित होने का कारण बनता है। प्रवसन एक सामाजिक प्रक्रिया है। इसी से समाज, देश, दुनिया बनी है। अति पिछड़ी जगहों के लोग थोड़ा विकसित स्थानों और अर्द्धविकसित जगहों के लोग पूर्ण विकसित जगहों की ओर आकर्षित होते हैं। उनकी जरूरत उस जगह को भी होती है। इसी को प्रवसन के अध्ययन में पुश फैक्टर और पुल फैक्टर कहा जाता है। पंजाब के किसानों को बिहार के मजदूरों की जरूरत है। महाराष्ट्र के कई कार्य व्यापार उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासियों की बदौलत ही चलते हैं। मुंबई के लोग दुबई, यूरोप और अमेरिका तक जाते हैं, लेकिन ये लोग चाहे जितना भी योगदान करते हों, उनमें बेगानापन देखा जाता है। ये प्रवासी गैर जब ज्यादा दिखने लगते हैं और कई जगह रोजगार के अवसरों के लिए प्रतिद्वंद्विता करने लगते हैं, तो उसके विरुद्ध नकारात्मक भावना विकसित होने लगती है। हालांकि वे अपनी संस्कृति के साथ जीते हैं और स्थानीय संस्कृति और भाषा आदि व्यवहारों से भी अपने को जोड़ते हैं। वे स्थानीय समाज को नए सांस्कृतिक अनुभव देते हैं, फिर भी उनको वहां गैर के रूप में ही देखा जाता है। इसके साथ ही होता है आर्थिक असुरक्षा का बोध, जिसे उभारकर उसका इस्तेमाल राजनीतिक शक्तियां करती हैं। इसकी अति तब आती है, जब प्रवासी सियासी हिंसा का शिकार होने लगता है। 
किसी मुख्यमंत्री द्वारा अपने प्रदेश के युवाओं की चिंता स्वाभाविक है, पर बढ़ती बेरोजगारी का दोष उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासियों पर मढ़ना सच से मुंह चुराना हो सकता है। इस समस्या को नए रोजगारों के सृजन न होने, रोजगार के अवसरों के लगातार कम होने और अवसरों के असमान वितरण के रूप में देखा जाना चाहिए था। ऐसा नहीं है कि हमारे नेता इस बात को नहीं जानते-समझते, लेकिन लोगों को इस सोच की तरफ ले जाना कुछ करने से ज्यादा आसान भी होता है और राजनीतिक रूप से फायदेमंद भी। 
दरअसल, अस्मिता की राजनीति करना शेर की सवारी करने जैसा होता है, जो अंत में सबका नुकसान करती है। हमारे राजनेताओं को शायद कभी यह बात समझ में आए, तब वे एक वृहतर मानव समाज बनाने की राह में रोडे़ नहीं अटकाएंगे और बूंद की तरह समुद्र का हिस्सा होने का भाव स्वीकार करेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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