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Hindi News ओपिनियन नजरियाध्यान खेती के विज्ञान पर दें सिर्फ अर्थशास्त्र पर नहीं

ध्यान खेती के विज्ञान पर दें सिर्फ अर्थशास्त्र पर नहीं

इस विषय पर आसानी से आम सहमति बन जाएगी कि उपजाऊ  मिट्टी, पर्याप्त पानी व नमी की उचित समय पर उपलब्धि और अच्छी गुणवत्ता, विविधता वाले बीज ही किसान और खेती के लिए सबसे अहम चीजें हैं। शायद इससे भी...

ध्यान खेती के विज्ञान पर दें सिर्फ अर्थशास्त्र पर नहीं
भारत डोगरा सामाजिक कार्यकर्ताFri, 02 Nov 2018 12:55 AM
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इस विषय पर आसानी से आम सहमति बन जाएगी कि उपजाऊ  मिट्टी, पर्याप्त पानी व नमी की उचित समय पर उपलब्धि और अच्छी गुणवत्ता, विविधता वाले बीज ही किसान और खेती के लिए सबसे अहम चीजें हैं। शायद इससे भी सभी सहमत होंगे कि इन तीनों की स्थिति हाल के दशकों में हमारे देश में तेजी से खराब हुई है। मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन लगभग हर क्षेत्र में तेजी से गिरा है। कई कारणों से उचित समय पर पानी नहीं मिल पाता और बदलते मौसम ने भी नमी को कम किया है। कुछ अन्य स्थानों पर इसके विपरीत जल-जमाव की समस्या बढ़ी है। बीजों की विविधता तो इस हद तक कम हुई                  है कि इसको एक आपदा या इमरजेंसी की स्थिति ही 
मानना चाहिए।
दिलचस्प बात है कि इसे सब जानते हैं, फिर भी जब किसान संकट की चर्चा होती है, तो प्राय: इन तीनों मुद्दों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता है। प्राय: एक संकीर्ण आर्थिक पक्ष पर अधिक ध्यान दिया जाता है कि अल्पकाल में किसानों की आय को कैसे बढ़ाया जाए? पर अच्छी खेती इन तीनों अनिवार्यताओं में गिरावट आते रहने की स्थिति में आय टिकाऊ  तौर पर कैसे बढ़ सकती है, इसकी चर्चा आमतौर पर नहीं होती। दूसरी ओर ऐसी कई नीतियों को बढ़ावा मिल रहा है, जिससे यह तीनों संकट और उग्र हो सकते हैं। महाराष्ट्र में मराठवाड़ा क्षेत्र गंभीर जल संकट का क्षेत्र है। पर वहां औरंगाबाद के लगभग 200 शराब के कारखानों को प्राथमिकता के आधार पर पानी मिलता रहता है, जिससे वहां के जलाशय खाली होने के कगार पर पहुंच गए हैं। ऐसे कई स्थानों पर जहां जल संकट पहले से विकट है, वहां इसका समाधान किए बिना अधिक जल की खपत करने वाली फसलों को बढ़ाया जा रहा है। तिस पर यह भी मांग रहती है कि इस अत्यधिक जल-दोहन के लिए बिजली नि:शुल्क या विशेष रियायती दर पर मिले। यदि यह मांग मान ली जाए, तो क्या इससे जल-संकट और विकट नहीं हो जाएगा?
जिस तरह चंद वर्षों में बीटी कॉटन की किस्में भारत के कपास क्षेत्र पर छा गईं और कपास की सैंकड़ों वर्षों से चल रही विविधता भरी अनेक परंपरागत किस्में लुप्त हो गईं, वैसा कहीं अन्य फसलों के क्षेत्र में भी हो रहा है। चावल की तो हजारों किस्में पहले ही लुप्त हो चुकी हैं। गेहूं की सेहत के लिए बहुत लाभदायक कुछ परंपरागत किस्में अब नजर नहीं आ रही हैं।
मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन का यह हाल है कि कई किसान आह भरकर कहते हैं कि यदि यही हाल चलता रहा, तो एक दिन जमीन जवाब दे जाएगी। मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन बनाए रखने वाले किसान के सबसे अच्छे मित्र स्थानीय केंचुए व अनेक सूक्ष्म जीव तो एक बड़े क्षेत्र में लगभग लुप्त हो चुके हैं। इस कारण मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊ पन कम होता जा रहा है और किसानों का खर्च बढ़ता जा रहा है। कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं, पर यह महत्वपूर्ण मुद्दे उपेक्षित हैं।
अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि हम संकीर्ण आर्थिक सोच से आगे बढ़ें और कृषि संकट के समाधान के प्रति एक समग्र सोच विकसित करें। अगर हम इस दिशा में बढ़ते हैं, तो हमारी कोशिशें अपने आप पर्यावरण सुरक्षा से जुड़ जाएंगी। अभी तक हम अल्पकालिक समाधानों के चक्कर में मूल समस्या को खत्म करने की बजाय उसे लगातार बढ़ाते जाते हैं।
हमारी कृषि और किसानों की बहुत सारी समस्याओं का समाधान आर्थिक नहीं, वैज्ञानिक है। विज्ञान की एक मुख्य भूमिका है कि प्रकृति और प्राकृतिक प्रक्रियाओं की सही समझ लोगों में बने। फिर प्रकृति के विरुद्ध कभी न जाते हुए अपितु प्रकृति से सामंजस्य बनाकर, प्रकृति की रक्षा करते हुए, अन्य सभी जीवों की रक्षा करते हुए हमें कृषि की ऐसी राह अपनानी है, जो प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किए बिना उनका बेहतर से उपयोग करें। अभी देश में जो हो रहा है, उसमें किसान का खर्च बहुत ज्यादा होता है और पर्यावरण की क्षति के कारण उसे टिकाऊ लाभ नहीं मिल पाते हैं। इन गलतियों को सुधारते हुए उचित प्राथमिकताओं को लागू करना अब बहुत ही जरूरी हो गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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