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नेपाल की दुनिया को खुद तक सीमित न माने भारत

नेपाल ने चीन की महत्वाकांक्षी ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआई) को बडे़ उत्साह के साथ अपना लिया है। पाकिस्तान के अलावा भारत के पड़ोसी देशों में नेपाल ही एकमात्र वह राष्ट्र है, जिसने...

नेपाल की दुनिया को खुद तक सीमित न माने भारत
बिशाल चालिसे सीनियर प्रोग्राम ऑफिसर, नीति फाउंडेशनFri, 17 May 2019 12:04 AM
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नेपाल ने चीन की महत्वाकांक्षी ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआई) को बडे़ उत्साह के साथ अपना लिया है। पाकिस्तान के अलावा भारत के पड़ोसी देशों में नेपाल ही एकमात्र वह राष्ट्र है, जिसने बीजिंग में पिछले दिनों आयोजित बेल्ड ऐंड रोड फोरम (बीआरएफ) में अपना उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भेजा था। हालांकि हाल की दो अन्य घटनाओं ने भी भारत की बेचैनी बढ़ाई है। पहली, नेपाल ने व्यापार और पारगमन संधि के लिए चीन के साथ एक प्रोटोकॉल व्यवस्था पर हस्ताक्षर किया है, जिसके तहत नेपाल को तीसरे देश से व्यापार के लिए चीन के कम से कम सात बंदरगाहों के इस्तेमाल की अनुमति मिलेगी। नेपाल इसके लिए अब तक सिर्फ भारतीय बंदरगाहों का इस्तेमाल करता रहा है। दूसरी घटना यह है कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की तरह बीआरआई के तहत नेपाल के लिए भी एक ‘नेपाल-चीन ट्रांस-हिमालयन मल्टी डायमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क’ परियोजना तैयार की गई है, जिसमें नेपाल और चीन के बीच रेल-सेवा भी शामिल है। 
चीन के साथ नेपाल के इन समझौतों का बेशक हालिया समय में कोई खास आर्थिक मूल्य नहीं है, ये समझौते प्रतिकात्मक ही हैं। खासतौर से, चीनी तटों से नेपाल की भौगोलिक दूरी, दुर्गम इलाके और रेल-माल ढुलाई में परिवहन की ऊंची लागत को देखते हुए चीन के बंदरगाहों से व्यापार करना भौतिक व आर्थिक, दोनों नजरिये से व्यावहारिक नहीं दिखता। फिर, नेपाल में सिर्फ एक ऑल-वेदर रोड है, जो चीन की सीमा तक जाती है, और वह भी 2015 के भूकंप के बाद खस्ता हालत में है। काठमांडू को चीन से जोड़ने वाले रेल लिंक पर काम जरूर हो रहा है, लेकिन उसे भी पूरा होने में कम से कम एक दशक लगेगा। 
बावजूद इसके, हालिया घटनाक्रमों का उत्तरी पड़ोसी देश के साथ नेपाल के रिश्ते पर दूरगामी प्रभाव पड़ने का अनुमान है। वैसे, नेपाल के साथ अपने संबंधों पर ध्यान देने से भारत को जो रणनीतिक लाभ हासिल होगा, वह चीन के साथ रिश्ते बढ़ाने के बदले में नेपाल द्वारा चुकाई जाने वाली कीमत से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इसीलिए भारत के लिए अधिक लाभप्रद है कि वह नेपाल के साथ अपने संबंधों को मजबूत बनाए। नई दिल्ली को तीन क्षेत्रों पर खास ध्यान देना चाहिए। पहला, भारत को यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह अपने वादों को चीन से बेहतर नहीं, तो कम से कम उसकी तरह जरूर पूरा कर सकता है। नेपाल में भारत की ज्यादातर परियोजनाएं अक्सर देरी से पूरी होती हैं। लिहाजा, नई दिल्ली यदि एक विश्वसनीय साझीदार के रूप में अपनी छवि बनाना चाहती है, तो उसे यह रवैया बदलना ही होगा। दूसरा, भारत को चीन द्वारा अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में इस्तेमाल की जाने वाली अवधारणा ‘कम्युनिटी ऑफ शेयर्ड डेस्टिनी’ (साझा भाग्य वाला समुदाय) का अपना संस्करण तैयार करना होगा, क्योंकि नेपाल जैसे पड़ोसी देश यही उम्मीद करते हैं कि भारत की आर्थिक तरक्की से उन्हें भी लाभ होगा। जैसे, कोलकाता बंदरगाह से माल लदे ट्रक को सीमा पार करने में दो से सात दिन लगता है, जिससे नेपाल के व्यापारियों की लागत बढ़ जाती है। भारत के साथ नेपाल बडे़ व्यापार घाटे से जूझता है, जिससे देश की आर्थिक स्थिरता प्रभावित होती है। नेपाली कृषि निर्यात को भी आमतौर पर ‘नॉन-टैरिफ बैरियर’ जैसी व्यापारिक गतिविधियों को बाधित करने वाली मुश्किलों से जूझना पड़ता है। फिर, दोनों देशों की सीमा पर मूलभूत ढांचे को भी सुधारने की जरूरत है। तीसरा क्षेत्र है, नेपाली नेतृत्व को भारत समर्थक या फिर चीन समर्थक की तरह देखना नई दिल्ली बंद करे। नेपाल समृद्धि चाहता है और विदेशी निवेश समृद्ध बनने का एक अहम रास्ता है। इसलिए बीआरआई के तहत निवेश का स्वागत करना भारत के मुकाबले में चीन को खड़ा करना कतई नहीं है। 
ऐसे में, भारत के लिए अच्छा विकल्प यही है कि वह नेपाल को ‘या तो आप हमारे साथ हैं या नहीं’ वाले दायरे में रखना बंद करे और नेपाल सरकार के साथ मिलकर अपनी कनेक्टिविटी परियोजनाओं पर तेजी से काम करे। भौगोलिक निकटता के मद्देनजर भारत यहां अपने निवेश से चीन की तुलना में कहीं ज्यादा प्रभावी साबित हो सकता है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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