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घटते संसदीय कामकाज पर भी किसी को ध्यान देना होगा

मौजूदा संसद का कार्यकाल अपने अंतिम चरण में है। इसलिए शीतकालीन सत्र काफी अहम हो गया है, मगर अगले आम चुनाव की सरगर्मियों के चलते इस सत्र में कोई खास काम नहीं होने वाला। इस साल के बजट और मानसून सत्रों...

घटते संसदीय कामकाज पर भी किसी को ध्यान देना होगा
राजेश बादल वरिष्ठ पत्रकारMon, 10 Dec 2018 11:09 PM
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मौजूदा संसद का कार्यकाल अपने अंतिम चरण में है। इसलिए शीतकालीन सत्र काफी अहम हो गया है, मगर अगले आम चुनाव की सरगर्मियों के चलते इस सत्र में कोई खास काम नहीं होने वाला। इस साल के बजट और मानसून सत्रों के अनुभव से निराशाजनक तस्वीर उभरती है। लोकतंत्र की इस सर्वोच्च पंचायत में साल-दर-साल घटता कामकाज यकीनन चिंता का अवसर देता है। क्या इसकी गरिमा का ख्याल हमारे माननीयों को है? 
संसद की बैठकों के कम होते दिन और चर्चा का गिरता स्तर लंबे समय से बहस में है। कई दशकों से यह प्रस्ताव विचाराधीन है कि साल भर में लोकसभा के लिए 120 दिन और राज्यसभा के लिए 100 दिन अनिवार्य किए जाएं, लेकिन अभी तक हमारे राजनीतिक दलों को इसके लिए वक्त ही नहीं मिला। संसद की सामान्य कामकाज समिति ने 63 साल पहले 22 अप्रैल, 1955 को अपनी सिफारिशों में कहा था कि साल में कम से कम तीन सत्र और 100 दिन काम तो इतने बड़े देश की संसद में होने ही चाहिए। न केवल नेहरू मंत्रिमंडल ने इसे मंजूर किया, बल्कि उस दौर के प्रतिपक्षी राजनीतिक पंडितों ने भी इसे बेहद जरूरी माना था। इनमें राम मनोहर लोहिया, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मधु दंडवते, इंद्रजीत गुप्त, मधुलिमये, जगजीवन राम और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे धुरंधर शामिल थे। पक्ष-प्रतिपक्ष ने इसे एक तरह से अपनी ‘गीता’ माना। इसका असर दिखा और पहली संसद में ही 677 बैठकें लोकसभा की हुईं। राज्यसभा की बैठकों की संख्या 565 रही। इनमें 3,784 घंटे काम लोकसभा में हुआ। पहले पांच वर्षों में हर साल 135 दिन औसत निकलकर आया और इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 1971 से 1977 तक लोकसभा की 613 बैठकें हुईं और 4,071 घंटे रिकॉर्ड काम हुआ, जबकि तब हिन्दुस्तान की आबादी सिर्फ 41 करोड़ थी। 
आजादी के बाद के दौर को देखें, तो निश्चित ही चुनौतियां कम थीं। एक भी जंग नहीं हुई थी (कबाइली छापामारों की घुसपैठ छोड़ दें) और चीन-पाकिस्तान से संबंध सामान्य ही थे। सीमा सुरक्षा की चिंताएं औसत ही थीं। आतंकवाद ने अपना सिर नहीं उठाया था। बेरोजगारी आज की तरह नहीं थी। विदेश नीति में आज की तरह कारोबारी उलझनें शामिल नहीं थीं। अपराध और हिंसा नियंत्रण में थी। आज जैसा सामाजिक विघटन नहीं था। पड़ोसियों से संबंध मधुर थे। मुख्य सरोकार खेती, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, औद्योगिक विकास और संचार जैसे बुनियादी मसलों से जुड़े थे। इन स्थितियों में अगर सौ दिन का काम अनिवार्य माना गया, तो फिर आज के हालात की कल्पना करें। 
समय के साथ चुनौतियों का दायरा भी बढ़ा, तरीका भी। आज करीब सवा सौ करोड़ आबादी हो चुकी है। जितनी समस्याएं अंदरूनी हैं, बाहरी उनसे कम नहीं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय और प्रभावी उपस्थिति एक उभरती महाशक्ति के अपने अस्तित्व के लिए अत्यंत आवश्यक है। ऐसे में, संसद सत्र 100 से बढ़ाकर 200 दिन करने की बात होनी चाहिए, लेकिन उस पर किसी का ध्यान नहीं है। बहसों के स्तर और सांसदों के खुद के अध्ययन पर किसी का ध्यान ही नहीं है। संसद की तरह ही राज्यों की विधानसभाओं में भी काम के दिन, उत्पादकता और बहस की गुणवत्ता में कमी आई है। 
संसद में घटते काम का एक कारण सांसदों का राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर शोध और शिक्षा में दिलचस्पी न लेना भी है। बमुश्किल चार या पांच फीसदी सांसद अखिल भारतीय या भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय मंच पर उपस्थिति वाली सोच रखते हैं। राजनीतिक दल भी अब खुल्लम-खुल्ला कहते हैं कि सिर्फ जीतने वाले उम्मीदवार को ही टिकट दिया जाएगा। ऐसे में, आप संसद में कैसे श्रेष्ठ चर्चाओं की उम्मीद कर सकते हैं?
क्या सियासी दलों को अंदाजा है कि उन पर जनता का कितना पैसा खर्च होता है? दोनों सदनों के सांसदों के वेतन-भत्तों पर पिछले वित्त वर्ष में ही करीब 400 करोड़ से ज्यादा खर्च हुए हैं। अगर इसमें दोनों सदनों का खर्च भी जोड़ दिया जाए, तो यह लगभग 1,000 करोड़ से भी अधिक हो जाता है। यह एक चेतावनी भरी घंटी है। लोकतंत्र के पैरोकारों को इसे गंभीरता से लेना होगा। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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