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आजादी का पहला संग्राम, जिसे हम भूलते जा रहे हैं

आज उस क्रांति को 161 साल हो रहे हैं, जिसे हम पहले स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जानते हैं। उस दिन जो हुआ, वह आज एक हसरत है। तब धर्म-जाति के नाम पर कोई बंटवारा नहीं था। न कोई हिंदू था, न ही कोई...

आजादी का पहला संग्राम, जिसे हम भूलते जा रहे हैं
सूर्यकांत द्विवेदी स्थानीय संपादक, हिन्दुस्तान, मुरादाबादThu, 10 May 2018 12:50 AM
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आज उस क्रांति को 161 साल हो रहे हैं, जिसे हम पहले स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जानते हैं। उस दिन जो हुआ, वह आज एक हसरत है। तब धर्म-जाति के नाम पर कोई बंटवारा नहीं था। न कोई हिंदू था, न ही कोई मुसलमान। जातियों के नाम पर खेमेबंदी नहीं थी। जमींदार भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे और किसान भी। महिलाएं भी आगे थीं, पुरुष भी। मेरठ से जन्मी 1857 की क्रांति को कई नामों से जाना गया। आज भी इस क्रांति को कोई एक नाम नहीं दिया जा सकता। अंग्रेजों के लिए यह गदर था। किसी ने इसको सैनिक विद्रोह कहा। किसी ने सैनिक विप्लव। भारतीय नाम क्या हो? इसके लिए आचार्य दीपंकर के नेतृत्व में लड़ाई लड़ी गई। सरकारी पत्रावलियों में यह क्रांति नहीं थी। शहीद दिवस था। शासन- प्रशासन के सामने तर्क दिया गया कि इस क्रांति में तो कोई भारतीय शहीद नहीं हुआ। खासकर 10 मई, 1857 को। फिर अंग्रेजों को शहीद का दर्जा क्यों? लंबी लड़ाई के बाद शहीद दिवस हटकर सरकारी पत्रावलियों में क्रांति दिवस चढ़ा।

हमेशा यह शिकायत रही है कि इस क्रांति के साथ न्याय नहीं हुआ। आज भी इसका बहुत सा इतिहास किंवदंतियों पर आधारित है। आजादी के इतने साल बाद भी, हम इसके इतिहास को अधिसूचित नहीं कर सके। विडंबना देखिए, न तो यह क्रांति अधिसूचित है, न क्रांति-स्थल और न क्रांतिकारी। आज भी मंगल पांडे और मेरठ के रिश्ते को लेकर तमाम सवाल हैं और तमाम भ्रांतियां। इस क्रांति के नायक तो वह 85 सैनिक हैं, जिन्होंने चर्बी लगे कारतूस चलाने से मना कर दिया था। सभी जाति-मजहब की यह संयुक्त भारतीय टुकड़ी थी। इसमें 45 मुस्लिम थे, तो गुर्जर, वैश्य, पंडित, जाट, सिख और वाल्मीकि भी थे। यह क्रांति किसी रजवाड़े से नहीं निकली। मेरठ के औघड़नाथ मंदिर से इसका जन्म हुआ। मश्क से पानी पीने से सैनिकों ने इनकार कर दिया। उनका कहना था कि इसमें चमड़ा है। भिश्ती ने कहा कि चमड़े से पानी पीने से इनकार करते हो, लेकिन मुंह से चर्बी लगे कारतूस खोलते हो। फिर क्या था, भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। सबसे पहले हवलदार मातादीन सामने आए और उन्होंने चर्बी लगे कारतूस चलाने से मना कर दिया। इस तरह 85 सैनिकों ने क्रांति का सूत्रपात कर दिया। 9 मई को सैनिकों का कोर्ट मार्शल हुआ। इनको 10-10 साल की सजा हुई। इस सजा के बाद सैनिकों ने बगावत की और जेल तोड़कर बंद सैनिकों को छुड़वा लिया। उसके बाद दिल्ली तक फतह की कहानी लिखी गई।

कुछ लोग मानते हैं कि यह क्रांति स्वत: स्फूर्त थी, नियोजित नहीं थी। हालांकि इसकी बुनियाद तो अजीमुल्ला खां और नाना फणनवीस ने पहले ही लिख दी थी। बहादुर शाह जफर की 12 मई, 1857 को ताजपोशी होनी थी, लेकिन परिस्थितिवश मेरठ की क्रांति 10 मई को ही हो गई। 10 मई से 18 मई तक अंग्रेजों पर भारतीय हावी थे। अंग्रेजों को इधर-उधर शरण लेनी पड़ी। बहुत से परिवारों ने रामपुर में शरण ली। 19 मई के बाद का दौर अंग्रेजों की ज्यादतियों का रहा। बगावत करने वालों को फांसी दी गई। यदि यह क्रांति दो दिन पहले नहीं होती और अजीमुल्ला खां व फणनवीस की योजना के मुताबिक होती, तो इसके परिणाम कुछ और होते।

यह क्रांति दरअसल एक किसान क्रांति थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जमींदार और किसान, दोनों इसमें शामिल थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 286 गांवों को अंग्रेजों ने बागी घोषित किया था। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसका दायरा कितना बड़ा था। बाबा शाहमल ने यह काम फौज बनाकर किया था। हिंडन तक इस फौज ने अंग्रेजों को छकाया। बाद में बाबा शाहमल शहीद हो गए। इसी तरह ईश्वरी पांडे भी इसके बड़े नायक हैं। मातादीन, धन सिंह कोतवाल को भी नहीं भुलाया जा सकता। यह क्रांति और इससे जुड़े बहुत से नाम आज भी उपेक्षा के शिकार हैं। पश्चिम बंगाल ने इस क्रांति को भरपूर मान-सम्मान दिया, लेकिन जिस मेरठ से इस क्रांति का सूत्रपात हुआ, वहीं यह उपेक्षित है। क्रांति-स्थल कालातीत हो रहे हैं। क्रांतिवीर अनाम हैं। 1857 की क्रांति 161 साल बाद भी अपनी पहचान, अपना हक और  संदेश मांग रही है।

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