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यह केवल कृषि का नहीं, पूरे गांव का संकट है

इन दिनों कृषि संकट और किसानों के संकट की चर्चा बहुत हो रही है, इसलिए हल भी इसी संकट के खोजे जा रहे हैं। यह भी सच है कि यह संकट पिछले दिनों काफी बढ़ा है और इसने पूरे ग्रामीण क्षेत्र को परेशान करके रख...

यह केवल कृषि का नहीं, पूरे गांव का संकट है
भारत डोगरा सामाजिक कार्यकर्ताWed, 21 Nov 2018 01:33 AM
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इन दिनों कृषि संकट और किसानों के संकट की चर्चा बहुत हो रही है, इसलिए हल भी इसी संकट के खोजे जा रहे हैं। यह भी सच है कि यह संकट पिछले दिनों काफी बढ़ा है और इसने पूरे ग्रामीण क्षेत्र को परेशान करके रख दिया है। कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्याओं और किसान संगठनों के आंदोलनों ने पूरे देश को न सिर्फ झझकोरा, बल्कि समस्या की गंभीरता का भी एहसास करा दिया। इसीलिए इस पर चर्चा भी शुरू हुई और सरकारों पर नीतियों में बदलाव का दबाव भी बना। मगर इससे निपटने के लिए लगातार की जा रही कोशिशों के बीच गांवों के दूसरे संकट या गांवों के दूसरे तबकों के संकट लगातार नजरंदाज हो रहे हैं। जबकि ऐसे कुछ संकट तो काफी पहले से चले आ रहे हैं और लगातार बढ़ भी रहे हैं। यदि दस्तकारों की बात करें, तो उनकी परंपरागत आजीविका पिछले कुछ समय में बड़े स्तर पर छिनती ही चली गई है। भूमिहीन मजदूर परिवारों पर नजर डालें, तो उनकी आर्थिक स्थिति हमेशा सबसे कठिन रही और आज भी बनी हुई है। एक अन्य हकीकत यह भी है कि भूमिहीन या लगभग भूमिहीन परिवारों की संख्या गांवों में बढ़ती जा रही है।
जरूरी यह भी है कि हमें खेती का संकट दूर करने के साथ ऐसी व्यापक नीतियां भी अपनानी चाहिए, जिनसे सभी गांववासियों का लाभ एक सा हो और टिकाऊ  तौर पर पूरे गांव की अर्थव्यवस्था मजबूत हो। जिसे हम कृषि संकट कह रहे हैं, वह भी दरअसल कहीं न कहीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संकट ही है। पहले आधुनिक उद्योग व्यवस्था ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कई तरह से नुकसान पहुंचाया था, कई तरह की दस्तकारी और ग्रामीण उद्योगों को चलन से बाहर कर दिया था, और अब आधुनिक वित्त व्यवस्था और मौद्रिक नीतियों ने कृषि के लिए परेशानी खड़ी कर दी है।
जबकि हमें ऐसी आर्थिक नीतियों की जरूरत है, जिससे गांव व कस्बे स्तर पर बड़े पैमाने पर ऐसे टिकाऊ रोजगार का सृजन हो, जो लोगों की जरूरतों को अपेक्षाकृत श्रम-सघन तकनीकों से पूरा कर सके। प्रदूषण को न्यूनतम रखने का ध्यान आरंभ से ही दिया जाए। दूसरी ओर खेती में भी अपेक्षाकृत श्रम-सघन व बेहद कम खर्च वाली ऐसी तकनीकों को अपनाया जाए, जो पर्यावरण की रक्षा के अनुकूल हों। जल-संरक्षण व स्थानीय वनस्पति से हरियाली बढ़ाने पर जोर दिया जाए। 
पंचायत राज व विशेषकर ग्राम-सभाओं को सशक्त किया जाए और इसमें कुछ जरूरी सुधार किए जाएं। सभी पंचायतों के स्तर पर ऐसे साधन-संपन्न प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हों, जो अधिकांश सामान्य बीमारियों के निशुल्क इलाज, सुरक्षित जन्म, टीकाकरण में सक्षम हों और गंभीर बीमारियों के सस्ते इलाज के लिए बड़े शहरी अस्पतालों से जुड़े हों। अच्छी गुणवत्ता की व नैतिक गुणों के समावेश वाली निशुल्क सरकारी शिक्षा व्यवस्था गांव में उपलब्ध हो, जिसमें पर्यावरण रक्षा व स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग का भी समावेश हो। ऊर्जा के अक्षय स्रोतों को अधिक महत्व दिया जाए।
जबकि हमने गांव के संकट को कृषि संकट और कृषि संकट को आर्थिक समस्या मान लिया है। इसलिए कोशिशें कर्ज माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य से आगे नहीं जा पातीं। तात्कालिक राहत के लिए इन तरीकों की अपनी उपयोगिता और जरूरत हो सकती है, लेकिन गांवों के संकट का दीर्घकालिक हल इनमें नहीं है। वह तभी हो सकेगा, जब ऐसा टिकाऊ  ग्रामीण विकास मॉडल बन सके, जिसमें स्थाई आजीविकाओं की रक्षा के साथ-साथ पर्यावरण की रक्षा हो सके। अक्सर यह कहा जाता रहा है कि जो नीतियां टिकाऊ  आजीविका की ओर ले जाती हैं, वहीं नीतियां पर्यावरण की रक्षा की ओर ले जाती हैं व विशेषकर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भी महत्वपूर्ण कमी करती हैं। भारत उन देशों में है, जहां आज भी अधिक लोग गांवों में ही रहते हैं। अत: इस दिशा में यदि भारत कोई बड़ी पहल कर सके, तो इसका विश्व स्तर पर व्यापक महत्व होगा। लेकिन यह तभी हो सकेगा, जब हम विकास की परंपरागत सोच को छोड़कर अपनी जमीन और जरूरतों के लिहाज से नए समाधान खोजने की कोशिश करेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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