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Hindi News ओपिनियन नजरियाघरों में क्यों सिमटकर रह जाती हैं भारतीय महिलाएं

घरों में क्यों सिमटकर रह जाती हैं भारतीय महिलाएं

श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी-दर भारत में सबसे कम है। साल 2017 में सिर्फ 27 फीसदी वयस्क भारतीय महिलाओं के पास नौकरी थी या वे इसकी तलाश को लेकर गंभीर थीं। बाकी दुनिया के लिए यह आंकड़ा 50 फीसदी था।...

घरों में क्यों सिमटकर रह जाती हैं भारतीय महिलाएं
पुनर्जित रायचौधरी असिस्टेंट प्रोफेसर, आईआईएम, इंदौरTue, 02 Apr 2019 12:01 AM
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श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी-दर भारत में सबसे कम है। साल 2017 में सिर्फ 27 फीसदी वयस्क भारतीय महिलाओं के पास नौकरी थी या वे इसकी तलाश को लेकर गंभीर थीं। बाकी दुनिया के लिए यह आंकड़ा 50 फीसदी था। चिंता की बात यह भी है कि नौकरी-पेशा महिलाओं की आमदनी और मजदूरी भी अपने यहां कम है। ग्लोबल वेज रिपोर्ट 2018-19 के मुताबिक, भारत में महिलाओं की प्रति घंटा मजदूरी पुरुषों की तुलना में 34 प्रतिशत कम है। 73 देशों को लेकर तैयार इस रिपोर्ट में मजदूरी की यह असमानता अपने यहां सबसे ज्यादा पाई गई। अक्सर कहा जाता है कि श्रम बाजार में महिलाओं की दशा इसलिए खराब है, क्योंकि भारत में बाल विवाह ज्यादा होते हैं और युवतियों की शादी की औसत उम्र ब्राजील, चिली, केन्या और पाकिस्तान जैसे कई अन्य विकासशील देशों से भी काफी कम है।
समय-पूर्व विवाह निश्चय ही दो तरह से श्रम बाजार में महिलाओं की संभावनाएं बाधित करता है। पहला, यह महिलाओं की औपचारिक शिक्षा को प्रभावित करता है, जिसके कारण श्रम बाजार में उनकी हैसियत पर दुष्प्रभाव पड़ता है। और दूसरा, जल्दी शादी होने से मातृत्व का उनका दौर भी अपेक्षाकृत जल्दी शुरू हो जाता है। इसी वजह से यह सलाह दी जाती है कि श्रम बाजार में महिलाओं की दशा सुधारने का नीतिगत तरीका यही हो सकता है कि उनकी शादी की उम्र बढ़ा दी जाए। लेकिन क्या वाकई विवाह को टालने से श्रम बाजार में महिलाओं की हिस्सेदारी सुधर सकती है? इस सवाल की पड़ताल मैंने शिव नाडर यूनिवर्सिटी के डॉक्टरेट छात्र गौरव धमीजा के साथ मिलकर की। हमने भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण 2012 के करीब 40,000 महिलाओं के राष्ट्रीय प्रतिनिधि गृहस्थी संबंधी आंकड़ों का इस्तेमाल किया। नतीजा बता रहा है कि महिलाओं की शादी में देरी श्रम बाजार में उनकी अच्छी नौकरी की गारंटी नहीं है। यह हो सकता है कि अधिक उम्र में शादी दुल्हन को ज्यादा शिक्षा हासिल करने और प्रजनन क्षमता कम रखने के लिए प्रेरित न करे। हालांकि पूरी तरह ऐसा भी नहीं लगता। हमारे सर्वे में अधिक उम्र में शादी करने वाली महिलाओं के बच्चे कम थे और वे कहीं अधिक शिक्षित थीं।
मेरे इस निष्कर्ष को आप ‘मेल बैकलेश इफेक्ट’ कह सकते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, कोई महिला जितनी अधिक शिक्षित (और इसीलिए सशक्त भी) होती है, उसके साथ घरेलू हिंसा की उतनी ही ज्यादा आशंका होती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जब लैंगिक भूमिका व मियां-बीवी के बीच प्रभुत्व का रिश्ता नए सिरे से परिभाषित होता है, तब पुरुष अपना वर्चस्व जमाने और महिला की निर्भरता के सांस्कृतिक मानक को बहाल करने के लिए हिंसा का सहारा लेता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2005-06 के आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद समाजशास्त्री अबिगेल वेइट्जमैन ने पाया है कि जो महिलाएं अपने पति के समान शिक्षित हैं, उन्हें कम पढ़ी-लिखी महिलाओं की तुलना में अपने जीवनसाथी के हाथों ज्यादा प्रताड़ित होना पड़ता है। उनका यह अध्ययन पॉपुलेशन ऐंड डेवलपमेंट रिव्यू  में प्रकाशित हुआ है। 
चूंकि ‘मेल बैकलैश इफेक्ट’ या पुरुष प्रतिक्रिया प्रभाव महिलाओं की शिक्षा-प्राप्ति और हिंसा के संबंध को परिभाषित करता है, और चूंकि मेरे सर्वे में शादी के समय महिलाओं की उम्र के साथ उनकी शिक्षा भी बढ़ती दिखी, इसलिए यह दावा करना उचित है कि युवा दुल्हनों की तुलना में अधिक उम्र में शादी करने वाली स्त्रियों के ‘मेल बैकलैश इफेक्ट’ होने की आशंका कहीं अधिक होती है। काम करने की आजादी से भी उन्हें वंचित होना पड़ सकता है। ‘मेल बैकलैश’ का यह प्रभाव बेहतर शिक्षा व कम प्रजनन क्षमता के सकारात्मक असर को निष्प्रभावी बना सकता है और इसीलिए भारतीय महिलाओं की श्रम बाजार में संभावनाएं सिमट सकती हैं।
इन निष्कर्षों से पता चलता है कि श्रम बाजार में भारतीय महिलाओं की दशा सुधारने के लिए वे पारंपरिक नीतियां पूरी तरह कारगर नहीं हो सकतीं, जो विवाह में देरी और बाल विवाह को रोकने के लिए कानून की बात करती हैं। जरूरत ऐसी नीतियों की है, जो ‘मेल बैकलैश’ प्रभाव को कम करे। जैसे, राजनीति और कॉरपोरेट दुनिया में जेंडर कोटा तय करना। इससे इस नकारात्मक प्रभाव को निश्चय ही कम किया जा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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