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लैंगिक समानता के कुछ अनसुलझे सवाल

भारतीय संविधान स्त्री-पुरुष के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को अस्वीकार करता है, परंतु आज भी ऐसे कई कानून हैं, जो इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। देश के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में ऐसे कानूनों में...

लैंगिक समानता के कुछ अनसुलझे सवाल
ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्रीFri, 15 Dec 2017 10:26 PM
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भारतीय संविधान स्त्री-पुरुष के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को अस्वीकार करता है, परंतु आज भी ऐसे कई कानून हैं, जो इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। देश के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में ऐसे कानूनों में लैंगिक भेदभाव पर विचार करने की सहमति दे दी है। एक विवाहित पुरुष यदि किसी अन्य विवाहिता से शारीरिक संबंध बनाता है, तो पकडे़ जाने की सूरत में सिर्फ उसे ही दंड दिया जाता है। आखिर स्त्री को विवाहेतर संबंध बनाने की स्थिति में अपराधी क्यों नहीं माना जाता? क्या विवाहेतर संबंध बिना स्त्री की सहमति के संभव हैं? जब संबंध की स्थापना में दोनों की समान सहभागिता है, तो एक ही अपराधी क्यों? ये वे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर ढूंढ़ना जरूरी हो जाता है। 

तमाम सामाजिक परिवर्तनों के बावजूद आज भी समाज में पुरुष की छवि एक खलनायक की बनी हुई है। पुरुष को शोषक और स्त्री को शोषित मानने की प्रवृत्ति ने लैंगिक समानता की हर परिभाषा को झुठला दिया है। पुरुष और स्त्री में यद्यपि शारीरिक भेद अवश्य है, परंतु मानवीय संवेदनाएं दोनों में समान होती हैं। दोनों ही ईष्र्या, द्वेष, घृणा, प्रेम और पीड़ा को समान रूप से महसूस करते हैं। दुनिया भर में 19 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस इसीलिए मनाया जाता है कि लैंगिक समानता और पुरुषों के अधिकार की बात की जाए। यह जरूरी भी है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता है, तो समाज में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वैसे तो वैश्विक परिप्रेक्ष्य में विवाहेतर संबंधों के कानून की बात की जाए, तो यूरोपीय देशों में यह गैर-कानूनी कृत्य नहीं है। 2015 में दक्षिण कोरिया ने भी 62 साल पुराने अपने कानून में बदलाव करते हुए विवाहेतर संबंध को अपराध मानने से इनकार कर दिया और यह कहा कि यह दंपति ही निश्चित करें कि उन्हें अपने रिश्ते में वफादारी रखनी है या नहीं। कुछ अमेरिकी राज्यों में भी विवाहेतर संबंधों को अपराध नहीं माना गया है, मगर पश्चिम एशिया में इसे लेकर काफी कठोर कानून हैं। पाकिस्तान, सीरिया और कई अन्य मुस्लिम देशों में ऐसी औरत को पत्थर मारने तक की सजा दी जाती है। यह विश्व भर में गहन विमर्श का विषय है कि एक परिपक्व व्यक्ति को यह स्वतंत्रता क्यों नहीं दी जाए कि उसे किससे संबंध रखना है यह वह खुद तय करे? 

लैंगिक समानता और कानून के संबंध में अगर अपने देश की बात की जाए, तो ‘आईपीसी की धारा-497’ ही नहीं, ‘घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005’ भी लैंगिक समानता को कठघरे में खड़ा करता दिखाई देता है। यह स्पष्ट इंगित करता है कि महिलाएं ही घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। परंतु यह सत्य नहीं है। विश्व के अलग-अलग देशों के आंकडे़ बताते हैं कि पुरुष भी ‘घरेलू हिंसा’ से प्रताड़ित होते हैं। शोध बताते हैं कि अमेरिका में एक वर्ष में प्रति मिनट 20 लोग अपने ‘साथी’ के दुव्र्यवहार का शिकार होते हैं। इनमें तीन में से एक महिला और चार में से एक पुरुष शारीरिक हिंसा का शिकार बनते हैं। इसी तरह, ऑफिस ऑफ नेशनल स्टैटिस्टिक्स के अनुसार, ग्रेट ब्रिटेन में पिछले साल सात लाख पुरुषों और 12 लाख महिलाओं ने घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कराई थी। 

यूरोपीय देशों से लेकर अमेरिका तक में घरेलू हिंसा को लैंगिक भेदभाव से मुक्त रखा गया है, परंतु एशियाई देशों, विशेषकर भारत में पुरुषों के विरुद्ध घरेलू हिंसा कानून द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है, जो लैंगिक समानता की परिभाषा का उल्लंघन है। कुछ समय पूर्व जब महिला एवं बाल विकास मंत्री ने महिला आयोग को पत्र लिखकर कहा कि घरेलू हिंसा के झूठे मामलों में पुरुषों के लिए भी शिकायत का एक प्लेटफॉर्म होना चाहिए, तो महिला आयोग के अधिकारियों ने यह उत्तर दिया कि यह कदम उन दिशा-निर्देशों के खिलाफ है, जिन पर आयोग आधारित है। राष्ट्रीय महिला आयोग चूंकि वैधानिक निकाय है, इसलिए यह मंत्रालय के नियंत्रण में नहीं आता। 
इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकत कि महिलाओं को बराबरी का दरजा हर क्षेत्र में मिलना चाहिए, पर उसके लिए क्या पुरुष के अधिकारों की अवहेलना होनी चाहिए? ‘न्याय’ की परिभाषा पुरुष व स्त्री का विभेद न कर मानव आधारित होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता, तो यह संविधान के उस वचन को झुठलाना है, जो बिना किसी लैंगिक विभेद के सबको समान अधिकार देता है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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