फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन नजरियाकैसे बहाल हो डॉक्टरों और मरीजों में विश्वास का रिश्ता

कैसे बहाल हो डॉक्टरों और मरीजों में विश्वास का रिश्ता

चिकित्सा क्षेत्र की प्रतिबद्धता, प्रामाणिकता और पारदर्शिता आज सवालों के घेरे में है। हालांकि, इसमें कोई दोराय नहीं कि चिकित्सा विज्ञान की अभूतपूर्व सफलता के कारण न सिर्फ लोगों की औसत आयु में वृद्धि...

कैसे बहाल हो डॉक्टरों और मरीजों में विश्वास का रिश्ता
अनिल चतुर्वेदी, वरिष्ठ चिकित्सकTue, 06 Jun 2017 12:32 AM
ऐप पर पढ़ें

चिकित्सा क्षेत्र की प्रतिबद्धता, प्रामाणिकता और पारदर्शिता आज सवालों के घेरे में है। हालांकि, इसमें कोई दोराय नहीं कि चिकित्सा विज्ञान की अभूतपूर्व सफलता के कारण न सिर्फ लोगों की औसत आयु में वृद्धि हुई है, बल्कि लंबी उम्र तक उनका स्वस्थ और सुखी रहना भी संभव हुआ है। हाल की कुछ कामयाबियों पर गौर करें, तो हमारा देश पोलियो जैसे रोग से मुक्त हुआ है, आधुनिक जीवन शैली से उपजी बीमारियों- जैसे मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और कैंसर आदि के नियंत्रण की दिशा में भी प्रभावशाली दवाओं व उपचार तक आम आदमी की पहुंच बनी हैं, फिर भी यह चिंता की बात है कि चिकित्सक आम आदमी की नजर और नजरिये में सम्मान खोते जा रहे हैं।

चंद साल पहले तक शायद ही कोई रोगी अपने डॉक्टर के प्रति संदेह की भावना रखता था, लेकिन अब मरीज डॉक्टर और अस्पताल के खिलाफ मुकदमा दायर करने को अक्सर तत्पर दिखते हैं। राजनीति और राजनेताओं के प्रति तो भरोसे की कमी हमारे जनमानस का ही हिस्सा बन चुकी है, लेकिन आखिर क्या वजह है कि समाज के पेशेवर तबकों- जैसे डॉक्टरों, वकीलों के प्रति भी अब अविश्वास का वातावरण बनने लगा है? इसकी तस्दीक आए दिन अस्पतालों में तोड़-फोड़ और चिकित्सकों व स्टाफ से मारपीट की घटनाओं से की जा सकती है। आखिर जिन अस्पतालों में हमारे-आपके परिवारों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी सेवा लाभ उठाती रही है, उसके प्रति सहनशीलता में कमी क्यों?

मौजूदा दौर नैतिक मूल्यों व सामाजिक मान्यताओं के बिखराव का दौर है। ऐसे में, लोग और कई बार समाज आत्म-केंद्रित भावनाओं से संचालित होकर प्रतिक्रिया करते हैं। यह सही है कि चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से समाज की आकांक्षाएं बढ़ी हैं, मगर वे अब इस हद तक बढ़ गई हैं कि मरीज अपने चिकित्सक से निरोग होने की गारंटी मांगने लगा है। सुप्रसिद्ध चिकित्सक विलियम औसलर ने कहा था कि ‘चिकित्सा अनिश्चितता का विज्ञान और संभावनाओं की कला है।’ ऐसे में, गंभीर रोगियों के अंतिम चरण में उपचार करने वाले डॉक्टर ऊहापोह की स्थिति में रहने लगे हैं।

हमारी समस्या यह है कि हम चिकित्सा विज्ञान की सीमाओं पर गौर नहीं करते। हमारा ध्यान रोग और उसके उपचार पर ही केंद्रित रहता है। हमारी आम धारणा यही होती है कि चिकित्सक एक विशेष व्यक्ति है, जो रोगी का उपचार करता है। हम यह नहीं सोचते कि डॉक्टर भी एक इंसान है। उसकी भी कुछ इच्छाएं-आकांक्षाएं हैं। निश्चित रूप से इस स्थिति के लिए रोगी और डॉक्टर के बीच संवाद की कमी एक बड़ी वजह है। डॉक्टर और मरीज के आपसी संबंधों में लगाव और सद्भाव तभी संभव है, जब दोनों के बीच सहज संवाद स्थापित हो। इसी सहज संवाद से सहयोग और भरोसा पैदा होता है।
आज बड़ी तादाद में विदेशी मरीज अपना इलाज कराने के लिए भारत आ रहे हैं। अब तो सस्ते इलाज के लिए यूरोप, ब्रिटेन और उत्तरी अमेरिका से भी लोग आने लगे हैं। भारतीय चिकित्सा जगत के ये दो रूप हैं। जाहिर है, भारत का स्वास्थ्य परिदृश्य गहरे अंतरविरोध का शिकार हो गया है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। 

हाल के वर्षों में देश के निजी चिकित्सा क्षेत्र ने उल्लेखनीय प्रगति की है और इस मामले में भारत दुनिया के शीर्ष 20 देशों में गिना जाने लगा है। हमारी जीडीपी के 4.2 प्रतिशत के बराबर निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च हो रहा है, मगर विडंबना यह है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च घटकर महज 0.9 फीसदी रह गया है। 1991 में इस मद में जीडीपी का 1.3 प्रतिशत खर्च होता था। गौर कीजिए, उसी साल देश में उदारीकरण की शुरुआत हुई थी। उदारीकरण, शहरीकरण और मध्य वर्ग के विस्तार के कारण निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं का दायरा बढ़ रहा है। जाहिर है, सार्वजनिक चिकित्सा सेवाओं की नाकामी के कारण वे फल-फूल रही हैं। इसलिए जरूरी है कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को पर्याप्त आर्थिक संसाधन मुहैया कराए जाएं। सबके लिए स्वास्थ्य सेवा का लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकेगा, जब दोनों क्षेत्र सहयोग, सद्भाव और समर्पण की भावना से साझीदारी करेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें