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विकसित समाजों में जाकर भी नहीं बदली पिछड़ी सोच

परंपरागत अध्यात्म में सभी मनुष्य परमसत्ता के अंश हैं और ईश्वर की दृष्टि में सब समान हैं। नस्ल, जाति, लिंग और धर्म के आधार पर कोई किसी से छोटा-बड़ा नहीं है। विकसित देशों की लोकतांत्रिक आधुनिक सभ्यता भी...

विकसित समाजों में जाकर भी नहीं बदली पिछड़ी सोच
श्यौराज सिंह बेचैन, हिंदी विभागाध्यक्ष, दिल्ली विश्वविद्यालयThu, 09 Jul 2020 11:09 PM
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परंपरागत अध्यात्म में सभी मनुष्य परमसत्ता के अंश हैं और ईश्वर की दृष्टि में सब समान हैं। नस्ल, जाति, लिंग और धर्म के आधार पर कोई किसी से छोटा-बड़ा नहीं है। विकसित देशों की लोकतांत्रिक आधुनिक सभ्यता भी समता, स्वतंत्रता और बंधुता के उच्च मानव-मूल्यों को मान्यता देती है। इसमें सभी मनुष्यों के लिए एक समान नियम-कायदे का सृजन कर उनका पालन किया जाता है। परंतु कुछ नस्लों, जातियों को लेकर घृणा और विद्वेष के भाव संस्कार का हिस्सा बन जाने के कारण लोगों के चेतन-अवचेतन में पडे़ रहते हैं। कोविड-19 वायरस की तरह वे दिखाई नहीं पड़ते, पर इस भाव से जो घिरा रहता है, वह खुद तो बीमार रहता ही है, अपने पास-पड़ोस में भी इस घातक संक्रमण का प्रसार करता रहता है। कोरोना की कोई न कोई दवा बना ही ली जाएगी, परंतु अनुभव बताते हैं कि नस्लीय और जातिगत भेदभाव का इलाज जल्दी हो पाएगा, इसकी संभावना कम ही है। हालांकि, भारत व अमेरिका, दोनों बडे़ लोकतंत्रों में इन बीमारियों के आला दिमाग डॉक्टर पैदा हो चुके हैं। उन्होंने कानून की शक्ल में कारगर दवाएं भी दी हैं। परंतु इन दवाओं की अनदेखी या गलत इस्तेमाल से नस्लवादी या जातिवादी भेदभाव की बीमारियां अब तक बनी हुई हैं। 
मिनेसोटा में 25 मई को हुई अश्वेत अमेरिकी जॉर्ज फ्लायड की हत्या के बाद के हालात अभी पूरी तरह सामान्य भी नहीं हो पाए थे कि एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के एक प्रधान अभियंता ने अपने साथ जातिगत-भेदभाव होने का मामला दर्ज कराया है। हालात के मद्देनजर और सेवा शर्तों के कारण कर्मचारी का नाम उजागर नहीं किया गया है। यहां तक कि वह कर्मचारी महिला है या पुरुष, इसका भी खुलासा नहीं किया गया है। परंतु दोषी के विरुद्ध कार्रवाई होने के समाचार आए हैं। जाहिर है, अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की सरगर्मियां तेज हो चुकी हैं। ऐसे में, ट्रंप प्रशासन किसी भी समुदाय को अप्रसन्न करना नहीं चाहेगा। हालांकि, खबरें बता रही हैं कि संबंधित इंजीनियर भारतीय मूल के दलित समुदाय से हैं। और उन्होंने प्रमाणित किया है कि अमेरिकी कानूनों व नियमों का उल्लंघन करके न सिर्फ उनकी दो पदोन्नतियां रोकी गईं, बल्कि जातिगत-भेदभाव के आधार पर कनिष्ठ को वरिष्ठ बनाकर उनके ऊपर बिठाया गया है। विडंबना यह है कि जो दो आरोपी हैं, वे भी भारतीय मूल के हैं। नागरिक अधिकार समानता इकाई ने ऐसे मामलों की पड़ताल के बाद बताया है कि अमेरिकी कार्यस्थलों पर 2018 में 67 फीसदी भारतीय मूल के दलित कर्मचारियों को जातिगत भेदभाव का शिकार बनना पड़ा। अमेरिका में भारतीय प्रवासियों में बड़ी संख्या गुजरातियों की है। आरोप है कि ये लोग ऊंच-नीच का भाव ज्यादा रखते हैं। इन्होंने वहां अपनी भारतीय पहचान के आधार पर जो  सांस्कृतिक संस्थाएं बनाई हैं, उनमें सभी धर्मों-जातियों के भारतीय शामिल नहीं हैं। उनमें उच्च जातियों का दबदबा है। इसलिए अमेरिकी कानून से अब अपेक्षा की जाने लगी है कि वे भारतीय प्रवासियों में भी देखें कि उनमें नस्ल-रंगभेद की तरह भेदभाव तो सक्रिय नहीं हो रहा? 
आज एक कंपनी में इस बीमारी के लक्षण उजागर हुए हैं। हालांकि, अमेरिका, कनाडा और इंग्लैंड में रहने वाले ऐसे भी भारतीय हैं, जो जाति, धर्म और क्षेत्रवाद से ऊपर उठ चुके हैं। उन्होंने अंतरजातीय विवाह भी किए हैं और वे धर्म व क्षेत्र की संकीर्णता से भी मुक्त हुए हैं। परंतु ऐसे तरक्कीपसंद लोगों की संख्या बहुत कम है। मनुष्यता को इन थोडे़ से लोगों से ही उम्मीद है। अमेरिका और अफ्रीका में अश्वेत गुलामों की खरीद-फरोख्त का इतिहास काफी पुराना है। लेकिन आज उन्होंने मानव समता के मूल्य को स्वीकार किया है। आज से 10-12 साल पूर्व फादर जॉन पॉल ने चर्च की ओर से सार्वजनिक माफी मांगी थी कि ‘हमने दो सौ साल पूर्व अश्वेत लोगों को गुलाम रखने, उन्हें खरीदने-बेचने वाली अमानवीय प्रथा का समर्थन कर मनुष्यता के प्रति अन्याय किया था।’
बात शब्दिक क्षमा प्रार्थना तक नहीं रही, बल्कि चर्च की धार्मिक समितियों ने अमेरिका में डायवर्सिटी का समर्थन कर सभी क्षेत्रों में अश्वेतों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व की अनिवार्यता सुनिश्चित की। आज छिट-पुट नस्लीय हिंसा के बावजूद अमेरिका में अश्वेतों की स्थिति बेहतर है। वे सशक्त हैं, संगठित हैं, इसलिए श्वेत समुदाय भी उनके अधिकारों को स्वीकार करते हैं। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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