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दुनिया में हुए युवा आंदोलनों को याद करने की जरूरत

गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन और बिहार के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के जब 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं, तब कई देशों में हुए एक और युवा आंदोलन को याद करना जरूरी है, जिसके घटनाक्रम अब भी हमारी स्मृतियों में...

दुनिया में हुए युवा आंदोलनों को याद करने की जरूरत
Pankaj Tomarहरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकारSun, 11 Aug 2024 11:18 PM
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गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन और बिहार के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के जब 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं, तब कई देशों में हुए एक और युवा आंदोलन को याद करना जरूरी है, जिसके घटनाक्रम अब भी हमारी स्मृतियों में ताजा हैं। चंद महीनों बाद उस आंदोलन के 15 साल पूरे हो जाएंगे, जिसे हम ‘अरब ्प्रिरंग’ के नाम से जानते हैं। ट्यूनीशिया से शुरू हुआ यह आंदोलन जब एक के बाद एक पश्चिम एशिया के तमाम देशों में फैलने लगा, तो पूरी दुनिया की खैर-खबर रखने वाले तकरीबन सभी आलिम-फाजिल दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर थे। लीबिया, मिस्र, यमन, सीरिया, बहरीन जैसे देशों में नौजवान सड़कों पर आ चुके थे। वे तानाशाही की तमाम पाबंदियां हटाने और मानवाधिकार देने की मांग कर रहे थे। यह हवा इतनी तेज थी कि मोरक्को, इराक, अल्जीरिया, लेबनान, जॉर्डन, कुवैत, ओमान, सूडान और यहां तक कि सऊदी अरब में भी इसके झोंके महूसस किए गए। आंदोलन का भूगोल भले ही सीमित रहा हो, लेकिन इसने  दुनिया के तानाशाहों और लोकतांत्रिक ताकतों को यह संदेश दे दिया था कि इस नए दौर में पुराने तौर-तरीकों से नौजवान पीढ़ी को ज्यादा समय तक भरमाए नहीं रखा जा सकता।
नए दौर का जिक्र यहां इसलिए जरूरी है कि इंटरनेट, मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के आगमन के बाद का यह पहला बड़ा आंदोलन था, जो एक साथ कई देशों में फैला। तकनीक ने देश की सीमाओं से परे लोगों को आपस में जुड़ने का मौका दे दिया था। इनसे लोगों को लामबंद किया गया, धरना स्थलों तक खींच लाया गया और जो नहीं पहुंच सके, वे लाइक, कमेंट और फॉरवर्ड से भागीदार बनते रहे। इस सबका असर भी दिखा। कई देशों के शासनाध्यक्षों को गद्दी छोड़नी पड़ी। कई राजाओं ने अपनी गद्दी तो नहीं छोड़ी, लेकिन उन्हें प्रधानमंत्रियों को बर्खास्त करना पड़ा। तमाम जगहों पर सरकारें भंग की गईं और नए सिरे से चुनाव कराए गए। 
मगर इन सबके बाद क्या रक्तहीन क्रांति की बात करने वाले इन देशों के नौजवानों ने वह हासिल कर लिया, जिसके लिए वे सड़कों पर निकले थे? इसका जवाब पाने के लिए हमें अमेरिकी थिंक टैंक ‘कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन’ के एक अध्ययन को देखना होगा। यह अध्ययन बताता है कि इन सबमें ट्यूनीशिया एकमात्र ऐसा देश है, जहां लोकतंत्र स्थापित हुआ। बाकी सभी देशों में तानाशाही जैसी थी, कम या ज्यादा वैसी ही बनी रही। अपवाद सिर्फ मिस्र और सीरिया को कह सकते हैं, जहां सत्ता पहले से ज्यादा सख्त हो गई। तमाम देशों में लोगों के अधिकार कम कर दिए गए और उनके जीवन-स्तर में भी कोई खास सुधार नहीं हुआ। यहां तक कि ट्यूनीशिया में भी, जहां लोकतंत्र काफी हद तक स्थापित हो चुका था। युवा आंदोलनों के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वे बेरोजगारी की कुंठा से उपजते हैं। इलाज भी यही बताया जाता है कि नौजवानों को काम में लगाकर घर-गृहस्थी में उलझा दो, तो वे सड़कों पर नहीं निकलेंगे। यह धारणा कितनी सही है और कितनी नहीं, इस विस्तार में जाए बिना अगर हम ‘अरब क्रांति’ के दौरान आंदोलित देशों को देखें, तो आंदोलन के बाद भी वहां की सरकारों ने इस इलाज को अपनाने की या तो कोशिश नहीं की या फिर इसमें सफलता हासिल नहीं की। ज्यादातर देशों में बेरोजगारी दर कम या ज्यादा वैसी ही बनी रही, जैसी वह पहले थी।
हम अरब देशों की इस क्रांति को तब याद कर रहे हैं, जब हमारे पड़ोस बांग्लादेश में युवा उबाल का एक अन्य रूप हमने अभी देखा है। चंद हफ्तों के युवा आंदोलन ने 15 साल से जमी-जमाई उस सरकार को उखाड़ फेंका, जो आई तो लोकतंत्र के दरवाजे से थी, लेकिन पूरे देश को तानाशाही की गहरी गुफाओं में ले गई। इस आंदोलन का स्वागत किया जाना चाहिए, पर अरब ्प्रिरंग के सबक यहां हमें आशंकित करते हैं। डर है कि ये नौजवान जितना हासिल करने के लिए घर से निकले हैं, कहीं उससे ज्यादा वे खो न दें। इस डर का कारण भी है। सत्ता में बदलाव के बाद वहां जिस तरह से हिंसा हो रही है, सांप्रदायिक तत्वों को खेलने का मौका मिला है और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है, वह भविष्य को लेकर कोई उम्मीद नहीं बनाता। क्या पश्चिम एशिया के नौजवानों की तरह ही बांग्लादेश के नौजवानों को भी एक अंधेरे के बदले दूसरा अंधेरा मिलेगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)