लोकतंत्र की राह पर अभी बहुत आगे जाएगा अपना देश 

भारत की स्वतंत्रता के 77 वर्षों में देश की अनेक उपलब्धियां प्रत्येक भारतीय को गर्व से भर देती हैं। जिस देश में 22 प्रमुख भाषाएं और 19,500 से अधिक उप-भाषाएं हों; जहां अनेक धर्मों का श्रद्धा के साथ ...

Monika Minal अश्वनी कुमार, अधिवक्ता व पूर्व केंद्रीय मंत्री ,
Wed, 17 Apr 2024, 09:06:PM
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भारत की स्वतंत्रता के 77 वर्षों में देश की अनेक उपलब्धियां प्रत्येक भारतीय को गर्व से भर देती हैं। जिस देश में 22 प्रमुख भाषाएं और 19,500 से अधिक उप-भाषाएं हों; जहां अनेक धर्मों का श्रद्धा के साथ पालन होता हो और विभिन्न जातियों का सहस्तित्व हो, ऐसे राष्ट्र को एकजुट रखना अपने आप में अनूठी उपलब्धि है। भारत विश्व में विविधता में एकता की गौरवमयी बेमिसाल पहचान है। विशेषज्ञों के अनुसार, 2035 में भारत का विश्व की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरना तय है। भारत विश्व की चौथी बड़ी सैन्य शक्ति है। अंतरिक्ष में चांद को छूने और विश्व में ‘वैक्सीन’ का सबसे बड़ा उत्पादक होने का गौरव भी देश को प्राप्त है। 2004 के बाद 40 करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाकर देश के मध्यम वर्ग में शामिल करना, भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेष प्राप्ति है। 
हालांकि, जहां राष्ट्र की इन प्राप्तियों पर सभी को गर्व है, वहीं हृदय में कुछ पीड़ा की अनुभूति भी है। स्वतंत्रता के 77 वर्ष उपरांत भी लाचारी, दरिद्रता, शोषण, बेरोजगारी, सामाजिक अन्याय, आर्थिक असमानता और विघटनकारी राजनीति की सच्चाई जग-जाहिर है। सांविधानिक मर्यादाओं का हनन, प्रतिशोध व घृणा से दूषित सार्वजनिक संवाद और धर्म व जात-पात पर आधारित देश को विभाजित करने वाली प्रवृतियां चिंताजनक हैं। अधिकांश राजनेताओं में विवेक का अभाव, व्यक्तिगत शत्रुता को जन्म देने वाली राजनीतिक प्रतिस्पद्र्धा, उद्योगपतियों के काले-सफेद चंदे पर निर्भर चुनाव प्रक्रिया, चारों ओर धन का प्रलोभन, अमीर का अहंकार, निर्धन का दुत्कार, सत्ता का पूजन, असहायों के प्रति असंवेदनशीलता, किसी उत्कृष्ट लोकतंत्र का दर्शन तो नहीं हो सकते। जिस तरह अभद्र टिप्पणियों एवं अप्रमाणित आरोपों द्वारा हर दिन नेताओं व अन्य लोगों के सम्मान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं और सिद्धांतहीन गठबंधन को केवल सत्ता प्राप्ति के लिए उचित ठहराया जा रहा है, उससे हमारी सामाजिक, न्यायिक और राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लग रहा है। 
ऐसा सामाजिक वातावरण, जिसमें कर्म, फर्ज और त्याग की भावना को भौतिक लाभ एवं नुकसान के तराजू में तौला जाए, किसी सभ्य समाज और गरिमामय चलन का दर्शन तो नहीं है। क्यों प्रेमियों के जज्बात की पवित्रता और औचित्य का ‘सर्टिफिकेट’ और उनकी निजता का मानवीय अधिकार तंत्र का मोहताज है? क्यों लोकशक्ति अनेक मौकों पर आमजन के सम्मान को सुनिश्चित रखने में विफल हो जाती है? क्यों नीची राहें हैं ऊंचाइयों की? जिस देश में अभी भी अनेक बच्चे शिक्षा से वंचित रहकर दरिद्र्रता के बोझ से दबकर अपनी बेबसी की नुमाइश के लिए मजबूर हों, वह देश बापू के सपनों का भारत नहीं हो सकता। अटल बिहारी वाजपेयी की इस संवेदनशील पीड़ा की अभिव्यक्ति को सलाम करता हूं- टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी,/ अंतर को चीर व्यथा, पलकों पर ठिठकी।
ऐसे प्रश्नों का मकसद किसी व्यक्ति विशेष या राजनीतिक दल को दोषी ठहराना नहीं है। सवाल, सत्य और अपनी सामूहिक जिम्मेदारी को स्वीकार करने का है, ताकि इन त्रुटियों और चुनौतियों से जूझा जा सके। लोकतांत्रिक मर्यादा का तकाजा है कि जनादेश का आदर हो, चाहे वह किसी भी दल या गठबंधन के पक्ष में हो और निष्पक्ष चुनावों द्वारा चुनी हुई सरकारें सभी का प्रतिनिधित्व करें और सर्वस्व के हित में समर्पित हों। आम जनता की अपेक्षा है कि भविष्य में बनने वाली केंद्र व राज्य सरकारें सभी के लिए और कल्याणकारी सिद्ध हों। देशवासियों की इस परख पर हमारे राजनेता पूरा उतरेंगे या नहीं, इस प्रश्न का उत्तर भारतीय लोकतंत्र एवं हमारी कल्पना के न्यायसंगत राष्ट्र का भविष्य तय करेगा। 
इतिहास गवाह है कि अंतत: आदर्शवाद व आशावाद की विजय निश्चित है। प्रगतिशील भारत निराशाजनक नहीं हो सकता। वह सुनहरी सुबह जिसका इंतजार है, जल्द आएगी और हम सब मिलकर उस सुबह को लाएंगे। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की इस रचना से लेख को समाप्त कर रहा हूं- हो तिमिर कितना भी गहरा,/ हो रोशनी पर लाख पहरा,/ सूर्य को उगना पड़ेगा,/ फूल को खिलना पड़ेगा।
    (ये लेखक के अपने विचार हैं)  

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