अब मुख्यमंत्रियों से तालमेल बिठाने में लगे राज्यपाल
गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपालों की मुख्यमंत्रियों के साथ तलवारबाजी अब समाचार नहीं है। केरल और तमिलनाडु के राज्यपालों ने अचानक ही पाला बदल लिया लगता है और अब दोनों अपने मुख्यमंत्रियों के साथ...
गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपालों की मुख्यमंत्रियों के साथ तलवारबाजी अब समाचार नहीं है। केरल और तमिलनाडु के राज्यपालों ने अचानक ही पाला बदल लिया लगता है और अब दोनों अपने मुख्यमंत्रियों के साथ तालमेल बिठाते लगते हैं। ऐसे अद्भुत बदलाव को किसने बल दिया? केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने विधानसभा में न केवल वाम मोर्चा सरकार द्वारा दिए गए लिखित भाषण को श्रद्धापूर्वक पढ़ा, बल्कि राज्य सरकार और उसकी विभिन्न योजनाओं की तारीफ भी की। उन्हें यह जानकर खुशी हुई कि केरल सरकार स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रदर्शन कर रही है। राज्यपाल ने अपने हृदय परिवर्तन को सही ठहराते हुए यह टिप्पणी की कि उन्हें हर समय मुख्यमंत्री और उनकी सरकार का विरोध क्यों करना चाहिए? वह विपक्ष के नेता नहीं हैं।
इससे पहले महत्वपूर्ण मोड़ साजी चेरियन के शपथ ग्रहण समारोह के बाद आया, जिन्हें छह महीने पहले संस्कृति मंत्री पद से हटा दिया गया था। खैर, राजनीतिक प्रभाव की वजह से मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने चेरियन को मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया। शपथ ग्रहण समारोह के बाद राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने यह कहते हुए एक मीठी सी खबर दी कि वह मुख्यमंत्री के लिए ‘चॉकलेट’ का एक डिब्बा लाए हैं। राज्यपाल के कार्यालय ने अगले दिन मुख्यमंत्री कार्यालय से पूछताछ की कि क्या पिनाराई को मिठाई का डिब्बा मिल गया है! जाहिर है, राज्यपाल के दिल छूने वाले हाव-भाव ने राज्य में सियासी तापमान को ठंडा कर दिया है। राज्यपाल ने केरल में मिठाइयों के राजा माने जाने वाले आद्या प्रधमन को भेंट देने के लिए नहीं खरीदा, बल्कि वह कश्मीर से मिठाई का एक डिब्बा ले गए थे। इसका लाभ भी हुआ, मुख्यमंत्री ने विधानसभा सत्र की शुरुआत में लाल गुलाब के गुलदस्ते के साथ राज्यपाल का स्वागत करते हुए उनकी सराहना की।
इसी तरह, तमिलनाडु में राज्यपाल आर एन रवि ने राज्य सरकार के साथ विधानसभा में तनातनी के बाद अचानक पलटी मारी और मुख्यमंत्री को गणतंत्र दिवस पर चाय-जलपान के लिए अपने आवास पर आमंत्रित किया। यहां राज्यपाल समझ चुके थे कि विधानसभा में अपना भाषण पढ़ने की उनकी कोशिश नाकाम हो गई है। राज्यपाल ने कुछ ऐसा किया कि मुख्यमंत्री अपने बेटे व दस से ज्यादा कैबिनेट मंत्रियों के साथ राज्यपाल के बुलावे पर चले गए। जहां शत्रुतापूर्ण माहौल था, वहां मिलना-जुलना शुरू हुआ। वैसे तिरुवनंतपुरम और चेन्नई में मौजूद राज्यपालों के मन में अचानक बदलाव की वजह क्या है? यह गलती है या राजनीति?
पिछले महीनों में तमिलनाडु और केरल, दोनों में राजभवन की मदद से भाजपा स्वयं को सुर्खियों में रखने में सफल है। तमिलनाडु में प्रदेश भाजपा प्रमुख अन्नामलाई की हरकतों ने उसे खबरों में बनाए रखा है। वह यह दिखाने की कोशिश करते रहे हैं कि राज्य में भाजपा वास्तविक विपक्ष है और अन्नाद्रमुक तीसरे स्थान पर है। राज्य में जिन नेताओं पर भाजपा ने पहले विश्वास कर रखा था, अब उन्होंने पूर्व आईपीएस अधिकारी अन्नामलाई के भगवा राजनीति में उदय के बाद खुद को दरकिनार कर लिया है। ऐसे नेताओं ने भाजपा आलाकमान से भी शिकायत की है, उसके बाद ही जोखिम देखते हुए राज्यपाल आर एन रवि ने तमिलनाडु का नाम बदलकर तमिजागम करने पर बहस छेड़ने का फैसला किया। खैर केंद्र के एक फरमान ने शायद राज्यपालों को अपनी धुन बदलने के लिए मजबूर किया है।
केरल में, जहां भाजपा प्राय: आवाज बुलंद करने में स्वयं को असमर्थ पाती थी, उसे राज्यपाल के कार्यालय से मदद मिली, पर जो चीज बदली, वह दिल्ली में उसके नेतृत्व द्वारा यह महसूस करना था कि राजभवनों की आक्रामक भूमिका को लोगों द्वारा सराहा नहीं जा रहा। अखबारों के संपादकीय व टीवी बहसों में भी तमिलनाडु के राज्यपाल की आलोचना हुई। मित्रवत मीडिया को भी उनका बचाव करने में मुश्किल होने लगी। केरल में भी मुख्यमंत्री के साथ राज्यपाल के लगातार झगड़े से कोई लाभ नहीं हुआ। लोगों की सोच के बारे में कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रिया भी राज्यपालों के खिलाफ गई।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)