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अगले ओलंपिक में बॉक्सिंग से नई आस बंधाती बेटियां

भारतीय मुक्केबाजों ने आईबीए महिला विश्व चैंपियनशिप में जिस तरह की धाक जमाई है, उससे देश में इस खेल को लेकर माहौल बदलने का संकेत मिलता है। भारतीय महिला मुक्केबाजी की ‘पोस्टर गर्ल’ मानी जाने वाली...

अगले ओलंपिक में बॉक्सिंग से नई आस बंधाती बेटियां
Pankaj Tomarमनोज चतुर्वेदी, वरिष्ठ खेल पत्रकारTue, 28 Mar 2023 10:44 PM
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भारतीय मुक्केबाजों ने आईबीए महिला विश्व चैंपियनशिप में जिस तरह की धाक जमाई है, उससे देश में इस खेल को लेकर माहौल बदलने का संकेत मिलता है। भारतीय महिला मुक्केबाजी की ‘पोस्टर गर्ल’ मानी जाने वाली निकहत जरीन की अगुवाई में भारत का चार स्वर्ण पदक जीतना काफी मायने रखता है। ऐसा नहीं है कि भारत ने पहले कभी चार स्वर्ण पदक नहीं जीते, वह ऐसी सफलता साल 2006 में मैरीकॉम की अगुवाई में हासिल कर चुका है। मगर तब ओलंपिक में महिला मुक्केबाजी नहीं हुआ करती थी। साल 2012 के लंदन ओलंपिक में इसे शामिल किए जाने के बाद से प्रतिस्पद्र्धा बहुत बढ़ गई है, और इस स्थिति में चीन जैसी ताकत को पीछे छोड़ चार स्वर्ण पदक जीतना भारतीय महिला मुक्केबाजों के दबदबे को दर्शाता है।
हम जानते हैं, मुक्केबाज एमसी मैरीकॉम का इस चैंपियनशिप में दबदबा रहा है और उनके नाम छह स्वर्ण सहित आठ पदक हैं। अब उनका दौर लगभग गुजर चुका है। मगर निकहत जरीन ने लगातार दूसरी बार सोना जीतकर मैरीकॉम की जगह भरने का संकेत दिया है। पिछले साल इस्तांबुल विश्व चैंपियनशिप में उन्होंने 52 किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण जीता था, पर इस बार ओलंपिक के 50 किलोग्राम भार वर्ग में स्वर्ण जीता है, जिसका कहीं ज्यादा महत्व है। भारत के लिए तीन अन्य स्वर्ण पदक जीतने वाली नीतू घनघस, स्वीटी बूरा और टोक्यो ओलंपिक की कांस्य पदक विजेता लवलीना हैं।
लंदन ओलंपिक में महिला बॉक्सिंग को शामिल किए जाने के समय मैरीकॉम ने कांस्य जीता था, पर चार साल बाद रियो ओलंपिक में भारतीय महिला मुक्केबाजों को कोई सफलता नहीं मिली। 2021 में टोक्यो ओलंपिक में लवलीना ने कांस्य जीतकर नाक कटने से जरूर बचाई थी, पर प्रदर्शन को प्रभावी नहीं माना गया था। अब भारतीय मुक्केबाजी की तस्वीर बदलती दिख रही है। इसका पहला संकेत इस साल फरवरी में देखने को मिला, जब भारत आईबीए विश्व रैंकिंग में तीसरे स्थान पर आ गया। अभी कुछ साल पहले तक हम 44वें स्थान पर हुआ करते थे। यह बदलाव मुक्केबाजों को सही प्रशिक्षण के साथ-साथ विदेशी दौरों पर लगातार भेजे जाने से हासिल अनुभव का परिणाम है।
निकहत जरीन को छोड़ दें, तो बाकी तीनों स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय मुक्केबाज लवलीना, नीतू और स्वीटी ग्रामीण पृष्ठभूमि और अत्यंत साधारण परिवारों से आती हैं। निकहत जरूर मध्यम वर्गीय परिवार की हैं, लेकिन इन सभी को उचित प्रशिक्षण पाने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़े। असम के गोलाघाट की लवलीना के पिता तो महज 1,300 रुपये प्रतिमाह कमाया करते थे। इन महिला खिलाड़ियों की समस्या यही नहीं है, उन्हें बॉक्सिंग जैसी खेल विधा को अपनाने के लिए भी तमाम लोगों से उलाहने सुनने पड़ते हैं।
भारत में इस तरह की पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाली ज्यादातर खिलाड़ी अपने जज्बे की बदौलत ही मुकाम पाते हैं। हमारे यहां तो सही जानकारी का इतना अभाव है कि कई बार खिलाड़ियों को यह तक पता नहीं होता कि वह किस खेल को अपनाएं? निकहत पहले ्प्रिरंटर थीं, बाद में बॉक्सिंग में आईं। यही स्थिति लवलीना की भी है, वह भी किक बॉक्सिंग में खेलती थीं, पर बाद में साई कोच की सलाह पर बॉक्सिंग में आईं। आज ओलंपिक खेलों में पांच-छह पदक जीत लेने पर ही 140 करोड़ की आबादी में खुशी की लहर दौड़ जाती है, जबकि छोटी-छोटी आबादी वाले देश हमसे बेहतर प्रदर्शन करते हैं। हम मामूली सुधार से सम्मानजनक मात्रा में पदक जीत सकते हैं।
भारत में सही मायने में बॉक्सिंग को लेकर माहौल 2008 के बीजिंग ओलंपिक में विजेंदर सिंह के कांस्य पदक जीतने से बना। बाद में मैरीकॉम से उम्मीद लगाई गई कि वह देश को जरूर स्वर्ण दिलाएंगी, लेकिन वह टोक्यो ओलंपिक में सफल न हो सकीं। मगर इस विश्व चैंपियनशिप में महिला मुक्केबाजों ने जिस तरह से चार स्वर्ण पदकों पर कब्जा जमाया है, उससे अगले साल पेरिस में होने वाले ओलंपिक खेलों में इस विधा के लिए राष्ट्रगान गाए जाने की उम्मीद बंधती है, क्योंकि ये चारों लड़कियां स्वर्ण पदक जीतने का माद्दा रखती हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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