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Hindi News ओपिनियन नजरियादलबदल-विरोधी कानून को क्या खत्म कर देना चाहिए

दलबदल-विरोधी कानून को क्या खत्म कर देना चाहिए

कोई कानून राजनीति का चरित्र नहीं बदल सकता। राजनीतिक पार्टियां अच्छे कानूनों की भी काट खोज ही लेंगी। इसीलिए, 1985 में जब पाला बदलने की कुप्रथा को खत्म करने के लिए दलबदल-विरोधी कानून बनाया गया था, तभी...

दलबदल-विरोधी कानून को क्या खत्म कर देना चाहिए
चक्षु रॉय, विधायी व नागरिक संबंध शोध विशेषज्ञ Mon, 27 Jul 2020 10:44 PM
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कोई कानून राजनीति का चरित्र नहीं बदल सकता। राजनीतिक पार्टियां अच्छे कानूनों की भी काट खोज ही लेंगी। इसीलिए, 1985 में जब पाला बदलने की कुप्रथा को खत्म करने के लिए दलबदल-विरोधी कानून बनाया गया था, तभी विफलता इसकी नियति से नत्थी हो गई थी। यह कानून सांसदों या विधायकों से उनकी सदस्यता छीनकर दल बदलने के लिए दंडित करता है, जिसे तय करने का अधिकार लोकसभा या विधानसभा अध्यक्ष को दिया गया है।
कानून के मुताबिक, दलबदल दो तरीकों से साबित किया जा सकता है। पहला, जब किसी दल का विधायक या सांसद ‘स्वेच्छा से’ अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ दे। हालांकि, कानूनन यह शब्दावली परिभाषित नहीं है, जबकि इसका इस्तेमाल आमतौर पर शिष्ट शैली में पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए होता है। अदालत ने यही माना है कि विधायकों की गतिविधियों से यह पता लगाया जा सकता है कि उन्होंने पार्टी की सदस्यता छोड़ दी है। मगर मुकदमा-दर-मुकदमा जिस तरह से इसकी व्याख्या होती गई, उसने राजनीतिक दलों को अपने गुमराह व असंतुष्ट सांसदों-विधायकों के खिलाफ कार्रवाई करने का व्यापक आधार दे दिया है। इसका एक अर्थ यह भी है कि इनमें से कई मामलों में कानूनी कार्रवाई हो सकती है। इसीलिए इस प्रावधान से बचने के लिए सांसद या विधायक अब सदन से ही इस्तीफा देने लगे हैं, जैसा कि इस साल की शुरुआत में मध्य प्रदेश में हुआ था। सांसद या विधायकों को पाला बदलने से रोकने के लिए दूसरा तरीका है, सदन में पार्टी के फैसले के खिलाफ मतदान करने के लिए उन्हें दंडित करना। दलबदल तय करने का यह कहीं अधिक उद्देश्यपूर्ण मानदंड है, मगर राजनीतिक दलों को यह रास नहीं आता, क्योंकि इसमें दोषी विधायक सजा पाने से पहले सरकार गिराकर या बनाकर अपनी पार्टी को नुकसान पहुंचा चुका होता है। यही कारण है कि दलबदल की आहट मिलते ही पार्टियां अपने भरोसेमंद सदस्यों को होटल या रिजॉर्ट आदि में भेजना शुरू कर देती हैं।
गुजरे लगभग 35 वर्षों में दलबदल-विरोधी कानून को नाममात्र सफलता मिली है, पर इसने देश के विधायी ढांचे को खासा नुकसान पहुंचाया है। सदन में विचार-विमर्श पर इसका गंभीर दुष्प्रभाव पड़ा है। अब हमारे जन-प्रतिनिधि पार्टी की कार्रवाई के डर से कानून व नीतिगत मसलों पर व्यक्तिगत विचार रखने से डरने लगे हैं। और चूंकि सभाध्यक्ष दलबदल-विरोधी कार्रवाई में फैसले लेने का अधिकारी होता है, इसलिए इस निष्पक्ष सांविधानिक कार्यालय को भी दलगत राजनीति में घसीट लिया गया है। पिछले वर्ष कर्नाटक विधानसभा में दलबदल संबंधी मुकदमे की सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा भी था, अध्यक्षों में तटस्थ रहने के अपने सांविधानिक कर्तव्य के खिलाफ कदम उठाने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी है। 
बहरहाल, दलबदल संबंधी याचिकाओं को स्वीकृत करने में की जाने वाली देरी से दो चीजें होती हैं। पहली, यह विधायकों की अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा सुनिश्चित करती है, क्योंकि विधायकी गंवाने की तलवार सिर पर लटकती रहती है। दूसरी, इस रणनीति ने न्यायपालिका को दलबदल के मामलों में हस्तक्षेप करने से रोका है। उप-राष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू दलबदल के मामलों को तुरंत निपटाने का आह्वान लगातार करते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस साल की शुरुआत में मणिपुर के एक मंत्री को पद से हटाने का आदेश देकर ऐसा ही रुख अपनाया था, क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष तीन वर्षों से मंत्री के खिलाफ दलबदल संबंधी अयोग्यता पर फैसला नहीं ले सके थे। मणिपुर के बाद गोवा विधानसभा के अध्यक्ष को भी देरी के लिए अदालत में ले जाया गया है। वैसे, हर बार दोष अध्यक्ष का नहीं होता। चूंकि इस कानून के तहत की जाने वाली कार्रवाई से सरकार का भविष्य तय होता है, इसलिए ऐसे किसी फैसले से अध्यक्ष-कार्यालय पर सवाल उठेंगे और उसे अदालत में चुनौती दी जाएगी।
वैसे, इन राजनीतिक ड्रामों में दो सवाल नजरंदाज कर दिए गए हैं। पहला, क्या यह कानून किसी राजनीतिक दल की आंतरिक बहस, नाराजगी और महत्वाकांक्षाओं से जुड़े विवादों का समाधान खोज सकता है? और यदि ऐसा नहीं है, तो इसके पहले कि विधायी संस्थाओं व लोकतंत्र को यह और अधिक नुकसान पहुंचाए, क्या इस कानून को खत्म नहीं कर देना चाहिए?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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