प्यार और समझदारी से बच्चों को संभालने की जरूरत
भारत में हर घंटे एक छात्र आत्महत्या करता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, ऐसी खुदकुशी सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में होती है और उसके बाद तमिलनाडु में। मगर जिस बात ने सभी का ध्यान खींचा, वह केरल के...
भारत में हर घंटे एक छात्र आत्महत्या करता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, ऐसी खुदकुशी सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में होती है और उसके बाद तमिलनाडु में। मगर जिस बात ने सभी का ध्यान खींचा, वह केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन का जुलाई में किया गया एक चौंकाने वाला खुलासा था कि कोरोना वायरस से बचाव के लिए लगाए गए लॉकडाउन के शुरुआती 100 दिनों में 66 बच्चों ने आत्महत्या कर ली। मुख्यमंत्री का मानना था कि स्कूलों के बंद रहने के कारण छात्र ‘चिंता और मानसिक तनाव’ सहित कई परेशानियों से जूझ रहे हैं। लिहाजा उन्होंने तुरंत इस मसले पर वरिष्ठ पुलिस अधिकारी आर श्रीलेखा के नेतृत्व में एक कमेटी गठित कर दी। इस कमेटी ने पिछले सप्ताह अपनी रिपोर्ट दे दी है और उसका पहला निष्कर्ष ही इस धारण को तोड़ता है कि लॉकडाउन में बच्चों की खुदकुशी के मामलों में तेजी आई थी। रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल इसी अवधि में इससे अधिक संख्या में, यानी 80 बच्चों ने यह अतिवादी कदम उठाया था।
संभव है कि कोरोना के दौरान जागरूकता बढ़ने की वजह से प्रशासन अधिक सतर्क हो, लेकिन आंकड़े अपने आप में चिंताजनक हैं। श्रीलेखा के अध्ययन से पता चलता है कि इस साल 1 जनवरी से 31 जुलाई के दरम्यान केरल के 14 जिलों में 158 बच्चों ने खुदकुशी की, जिनमें से 57 फीसदी लड़के थे और शेष लड़कियां। इनमें जिसकी उम्र सबसे कम थी, वह सिर्फ नौ साल का बच्चा था। बच्चों द्वारा आत्महत्या करने के क्या कारण हैं? लड़कियों में सबसे बड़ी वजह ‘प्रेम में मिली विफलता’ थी और दूसरी वजह ‘परीक्षा में फेल होने का डर’, जबकि लड़कों में अभिभावकों द्वारा मोबाइल फोन या टीवी रिमोट न देना, माता-पिता की डांट या भाई-बहन में तकरार जैसी मामूली वजहें जिम्मेदार थीं।
बेशक इस रिपोर्ट में पढ़ाई-लिखाई का दबाव भी एक बड़ी वजह है, लेकिन यह अध्ययन कई धारणाओं को तोड़ता भी है। ऐसा ही एक पहलू बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा है। एनसीआरबी की पूर्व की रिपोर्ट कहती है कि आत्महत्या करने वाले चार से 16 आयु-वर्ग के 12 फीसदी बच्चे मनोरोगी हैं। मनोचिकित्सक और बाल विशेषज्ञ यही चेताते रहे हैं कि अपने बच्चों के साथ व्यवहार करते समय माता-पिता और शिक्षक बच्चों की मानसिक सेहत से अनजान थे। मगर यह रिपोर्ट खुलासा करती है कि 83 फीसदी बच्चों ने घर में ही आत्महत्या की, जो इस आम सोच के खिलाफ है कि बच्चे घरों में सुरक्षित रहते हैं। इतना ही नहीं, यह अध्ययन इस धारणा को भी खारिज करती है कि एकल माता-पिता के बच्चे तुलनात्मक रूप से ज्यादा आत्महत्या करते हैं। निजी स्कूलों के बच्चों पर ज्यादा दबाव रहने की धारणा भी यह रिपोर्ट तोड़ती है। वास्तव में, आत्महत्या करने वाले बच्चों में आधे सरकारी स्कूलों में पढ़ते थे, एक तिहाई सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में और 20 फीसदी से कम बच्चे निजी स्कूलों के विद्यार्थी थे। अकेली संतान की आत्महत्या करने की सोच भी यह रिपोर्ट खारिज करती है, क्योंकि सिर्फ छह फीसदी बच्चे अपने घर-परिवार की अकेली संतान थे। अध्ययन में यह भी बताया गया है कि 91 प्रतिशत बच्चों में आत्महत्या का कोई संकेत नहीं देखा गया और न ही उन्होंने घर में खुदकुशी का कोई मामला देखा था। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि ज्यादातर मामलों में कारण ‘या तो अज्ञात थे या अस्पष्ट’। इनके अलावा भी कई अन्य तथ्य हैं, जो आम धारणा से उलट हैं।
बहरहाल, यह नया अध्ययन सिर्फ केरल में किया गया था। एकत्र किया गया आंकड़ा सिर्फ छह से आठ महीनों का था और किस तरीके से इस अध्ययन को अंजाम दिया गया, उस पर भी एक अलग बहस हो सकती है। संभव है कि केरल का उदाहरण पूरे देश के लिए सच न हो, क्योंकि ये सभी निष्कर्ष इस बात पर आधारित हैं कि अब तक बाल विशेषज्ञ क्या मानते रहे हैं? इस अध्ययन का सकारात्मक पक्ष यही है कि देश में बाल आत्महत्या के कारणों के बारे में प्रशासन और समाज को सामान्य तौर पर और अधिक जानने की जरूरत है। अध्ययन यह भी बताता है कि बाल आत्महत्या पर हमारी मौजूदा समझ अपर्याप्त है। किशोर मन को समझने के लिए हमें और अधिक काम करने की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)