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एक जरूरी सबक, जिसे सभी सरकारों ने भुलाया

कुछ महीने पहले एक फेसबुक पोस्ट के जरिये मुझे रोजेज इन दिसंबर  के बारे में पता चला, जो मोहम्मद अली करीम छागला की आत्मकथा है। छागला बंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, जिन्हें प्रधानमंत्री...

एक जरूरी सबक, जिसे सभी सरकारों ने भुलाया
संदीपन देब, वरिष्ठ पत्रकारMon, 26 Jul 2021 11:13 PM
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कुछ महीने पहले एक फेसबुक पोस्ट के जरिये मुझे रोजेज इन दिसंबर  के बारे में पता चला, जो मोहम्मद अली करीम छागला की आत्मकथा है। छागला बंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, जिन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमेरिका का राजदूत बनाया। सन 1963 से 1966 तक वह शिक्षा मंत्री रहे और फिर इंदिरा गांधी की कैबिनेट में विदेश मंत्री भी। वह आपातकाल के खिलाफ एक मुखर आवाज थे, और जीवन भर स्वतंत्रता, राष्ट्रवाद व धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर अडिग खडे़ रहे। रोजेज इन दिसंबर  कई प्रमुख घटनाओं का प्रत्यक्ष अनुभव कराता है, जिन्होंने 20वीं सदी के शुरुआती सात दशकों में भारत को गढ़ा। पर मैं यहां सिर्फ एक घटना का जिक्र करूंगा- हरिदास मुंद्रा मामला। यह आजाद भारत का पहला आर्थिक घोटाला था, जिसे आज भुला दिया गया है।
दरअसल, 1957 में संसद में यह आरोप उछला कि भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) ने कलकत्ता के कारोबारी मुंद्रा की कंपनियों के 1.24 करोड़ के बेकार शेयर खरीदे, (उनकी कीमत आज करीब 9,000 करोड़ रुपये होगी) संदेह की उंगली तत्कालीन वित्त मंत्री टी टी कृष्णामाचारी और वित्त सचिव एच एम पटेल पर उठी, पर दोनों ने इससे अनभिज्ञता जताई। संसद और मीडिया में शोर के बाद, नेहरू ने छागला को जांच का जिम्मा सौंपा। छागला ने महज एक महीने में अपनी रिपोर्ट सौंप दी। हालांकि, किसी को सीधा दोषी नहीं माना गया था, पर कृष्णामाचारी को इसके लिए जिम्मेदार ठहराने और उनसे इस्तीफा लेने के अलावा नेहरू के पास कोई विकल्प नहीं था। मुंद्रा भी जेल भेज दिए गए। 
छागला ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफारिशें भी की थीं। पहली, सरकार को स्वायत्त वैधानिक निगम के कामकाज में दखल नहीं देना चाहिए। दूसरी, निगम-अध्यक्ष उसे ही बनाना चाहिए, जिनके पास वित्तीय और व्यावसायिक अनुभव हों। तीसरी, यदि निगम के कार्यकारी अधिकारी सिविल सेवाओं से नियुक्त किए जाते हैं, तो उन्हें यह गांठ बांध लेनी चाहिए कि वे निगम के प्रति उत्तरदायी हैं और किसी फैसले को लेकर उन्हें सरकार के आला  अधिकारियों से प्रभावित होने या उनके सामने हथियार डालने की जरूरत नहीं है। चौथी, एलआईसी के फंड का उपयोग केवल पॉलिसीधारकों के हित में होना चाहिए, किसी बाहरी उद्देश्य के लिए नहीं। और, अगर बाहरी मकसद के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है, तो वह व्यापक देशहित में होना चाहिए। पांचवीं, सरकार के संसदीय अंग होने के कारण संबंधित मंत्री द्वारा संसद को हर स्तर पर विश्वास में लेना चाहिए और सभी जानकारी उसके सामने रखनी चाहिए। छठी, अपने अधीनस्थों के तमाम कार्यों की जिम्मेदारी मंत्री को लेनी चाहिए और उसे यह कहने की छूट नहीं होनी चाहिए कि मातहतों ने उसकी नीति को ठीक ढंग से लागू नहीं किया या उसकी इच्छा या निर्देशों की अवहेलना की।
ये सभी सिफारिशें फरवरी, 1958 में की गई थीं। क्या कोई कह सकता है कि ये गलत थीं? और क्या लगभग सभी सरकारों ने इनकी बडे़ पैमाने पर उपेक्षा नहीं की? सत्ताधारी नेताओं ने अपने संकीर्ण मकसद के लिए लगातार सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (पीएसयू) के संसाधनों का इस्तेमाल किया। एलआईसी तो पारंपरिक रूप से सरकारों की पसंदीदा दुधारू गाय रही। इसके पैसे का इस्तेमाल बाजार को मजबूत करने, मरणासन्न सरकारी इकाइयों के शेयर खरीदने और सत्ता के करीबी कारोबारियों की मदद करने के लिए किया गया। सरकारों द्वारा जारी विनिवेश के आंकड़े बताते हैं कि एक पीएसयू को दूसरी पीएसयू में शेयर खरीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जो दरअसल आर्थिक या वित्तीय लक्ष्यों को पूरा किए बिना एक जेब से दूसरी जेब में पैसा डालने की कवायद है। जबकि, कई बार बहुमूल्य सार्वजनिक उपक्रमों को व्यवस्थित रूप से चलाने के बाद मामूली पैसे में बेच दिए गए। हां, एलआईसी के आईपीओ पर भी काम हो रहा है और इसे निजी हाथों में सौंपने की तैयारी चल रही है। ऐसा कब होगा, इसके बारे में अभी साफ-साफ नहीं कहा जा सकता। इसमें जितना अधिक वक्त लगेगा, सरकार संभवत: उतनी कम रकम जुटा पाएगी। बहरहाल, जब हम आर्थिक सुधारों के 30 साल पूरा होने का जश्न मना रहे हैं, छागला की सिफारिशें उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी छह दशक पहले थीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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