पहाड़ों पर आपदा को हमने ही तो दिया है न्योता
उत्तराखंड में हाल की भारी बरसात ने सौ साल का रिकॉर्ड ही नहीं तोड़ा, बल्कि पहाड़ के इस अंचल को तबाह भी कर दिया है। 17 अक्तूबर से जो बरसात शुरू हुई, वह 19 की रात तक जारी रही। पहले तो यही लगा कि बादल फट...
उत्तराखंड में हाल की भारी बरसात ने सौ साल का रिकॉर्ड ही नहीं तोड़ा, बल्कि पहाड़ के इस अंचल को तबाह भी कर दिया है। 17 अक्तूबर से जो बरसात शुरू हुई, वह 19 की रात तक जारी रही। पहले तो यही लगा कि बादल फट गया, लेकिन तकनीकी रूप से इसे अतिवृष्टि ही बताया गया है। इस आपदा का सबसे ज्यादा असर नैनीताल जिले के रामगढ़, नथुआखान, तल्ला रामगढ़ से लेकर भीमताल में ज्यादा हुआ है। रामगढ़ में तो हमने सामने पहाड़ को दरकते, टूटते और गिरते हुए देखा। करीब तीन दशक से अपना इस अंचल से नाता रहा है, लेकिन ऐसी आपदा और ऐसी तबाही पहले कभी नहीं देखी। दरअसल, यह तबाही वहां-वहां ज्यादा हुई, जहां बिना सोचे-समझे, जमीन की भार सहन करने की क्षमता को बिना जाने बेतरतीब निर्माण किया गया और पानी के स्रोत को बंदकर निर्माण किया गया। यही स्थिति सड़क निर्माण की भी रही।
पानी की निकासी यानी ड्रेनेज सिस्टम को बंद कर निर्माण करने की वजह से ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। भवाली भीमताल में तो पहले से ही काफी सघन निर्माण हो चुका था और यहां का मौसम भी अब गरमियों में उतना ठंडा नहीं रहता है। अब वहां के ज्यादातर घरों में पंखे लग चुके हैं और होटल-रिसोर्ट में एयरकंडीशन की सुविधा दी जा चुकी है। इस वजह से और ऊंचाई वाली पहाड़ी जगहों जैसे रामगढ़, सतबुंगा, भटेलिया और मुक्तेश्वर की तरफ लोगों ने महंगी जमीन खरीदी और जैसा चाहा, वैसा निर्माण करा दिया। उन्होंने पहाड़ी ढाल पर पानी के प्राकृतिक स्रोत को बंद कर दिया या उसके पास ही निर्माण भी करा दिया।
इसका सबसे दिलचस्प उदाहरण भवाली और श्यामखेत के पास से निकलने वाली शिप्रा नदी है, जिसके उद्गम स्थल के सामने ही लोगों ने निर्माण करा दिया है। इस नदी की धारा को लोगों ने मोड़कर नाले की तरफ घुमा दिया और जहां से नदी बरसात में बहती थी, वहां अब कॉलोनी बस चुकी है। ऐसे में, कभी बादल फटने या जरूरत से ज्यादा बरसात होने पर पानी के रास्ते में जो भी घर मकान आएंगे, वे कैसे बचेंगे? ठीक इसी तरह रामगढ़ से तल्ला रामगढ़ के बीच बाग बगीचों की ढलान वाली जमीन पर लोगों ने बड़े निर्माण करा दिए हैं। पहाड़ पर मैदान की तरह न तो बड़े लॉन का प्रचलन रहा है न जरूरत, पर लोगों ने तीन-चार मंजिला घर बनाने के साथ बड़े लॉन की व्यवस्था भी कर डाली है। इस वजह से बाग बगीचों की ढलान वाली जमीनों पर रिटेनिंग वाल दी। भारी पत्थरों की यह दीवार मिट्टी को सहारा तो देती है, पर अगर भारी बरसात के बाद ज्यादा पानी मिट्टी में भर जाए, तो ऐसी दीवार अपने वजन को भी नहीं संभाल पाती, क्योंकि ढलान पर बरसाती पानी का प्रवाह बहुत तेज होता है। तीन दिन की भारी बरसात की वजह से इस बार भी यही हुआ। पानी झरने के रूप में ऊपर से नीचे की तरफ बहने लगा और उसके रास्ते में जो भी निर्माण आया, वह प्रभावित हुआ। जहां भी जंगल कट चुके थे या ज्यादा निर्माण हुआ है, वहां ज्यादा नुकसान हुआ है। पहाड़ पर ज्यादातर वे घर गिरे या बहे हैं, जिनका निर्माण बीते दो-ढाई दशक का है।
यहां ज्यादातर निर्माण मैदानी वास्तुशिल्प की तरह कराए गए हैं और पहाड़ के निर्माण में जो जरूरी सावधानी रखी जानी थी, वो नहीं रखी गई है। हिमालय व्यू, रीवर व्यू या लेक व्यू के नाम पर जमीन तो आसानी से बेची जाती है, पर ऐसी जगहों पर निर्माण को लेकर जो सावधानी बरती जानी चाहिए, उसका ध्यान नहीं रखा जाता है। कुछ पहाड़ अभी भी धसक रहे हैं, जो कच्चे पहाड़ माने जाते हैं। इसलिए पहाड़ पर जल निकासी का ध्यान रखना चाहिए। साथ ही, जंगल की कटाई भी कम से कम हो।
एक बात सड़क को लेकर बहुत ध्यान रखने वाली है। पहाड़ पर सड़क बनाते वक्त ध्यान रखा जाता है कि सड़क बनाने के लिए जितना पहाड़ काटा जाएगा, उसी कटे हुए पत्थर की सड़क बनाई जाएगी। लेकिन हो उल्टा रहा है, यहां पहाड़ काटकर नदियों में गिराए जा रहे हैं। ऐसे में, नदियां उफनाएंगी। जेसीबी मशीन से अगर पहाड़ काटकर बिना सूझबूझ सड़क बनाई जाएगी, तो पहाड़ कमजोर हो जाएगा और भारी बरसात में वह सड़क बैठ जाएगी, जैसा कई जगह पर नजर आ रहा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)