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हर दौर में न्याय के घर से ही सर्वाधिक उम्मीदें

सन 1960 के दशक के भारत में ‘बढ़ती उम्मीदों की क्रांति’ एक बहुप्रचलित मुहावरा था। यह मुहावरा एक बेहतर जीवन से जुड़ी ऐसी जन-उम्मीदों को जाहिर करता था, जिन्हें पूरा करना सरकार की क्षमता से परे...

हर दौर में न्याय के घर से ही सर्वाधिक उम्मीदें
गोपालकृष्ण गांधी,पूर्व राज्यपालWed, 24 Nov 2021 08:31 PM
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सन 1960 के दशक के भारत में ‘बढ़ती उम्मीदों की क्रांति’ एक बहुप्रचलित मुहावरा था। यह मुहावरा एक बेहतर जीवन से जुड़ी ऐसी जन-उम्मीदों को जाहिर करता था, जिन्हें पूरा करना सरकार की क्षमता से परे चला गया था। पर अब एक और मुहावरा पैदा होने का इंतजार कर रहा है, ‘घटती उम्मीदों का उदय’। यह मुहावरा हमारे लिए योग्यता अनुसार उपलब्धता की आशा और उपलब्ध कराने की सरकार की क्षमता के बीच अंतर से जुड़ा है।
हालांकि, तमाम दूसरे सामान्यीकरणों की तरह ही यह मुहावरा भी एक ईमानदार राजनेता, ईमानदार, मेहनती अधिकारी और योग्य संस्था पर लागू नहीं होता है। लेकिन इस बात से भला कौन इनकार कर सकता है कि आज राजनेता और नौकरशाह जैसे शब्द खास तारीफ के काबिल नहीं हैं? हम अपने गणतंत्र के शुरुआती वर्षों की तुलना में आज के राजनीतिक वर्ग से कम उम्मीद करते हैं, तो अधिकारियों के वर्ग से भी कम ही उम्मीदें हैं। संस्थाओं या संस्थानों को भी जनता के विश्वास में कमी का सामना करना पड़ा है। न्यायपालिका की आलोचना सुनना तो बहुत ही मनोबल गिराने वाली बात रही है। यह बात घटती हुई उम्मीदों को निराशा के गर्त में डुबो देती है। यही वह मुकाम है, जहां पिछले कुछ दिनों में मेरे लिए राहत की बात रही है कि मुझे बहुत कुछ ऐसा मिला है, जो निंदा की स्थिति को पलट देता है। उम्मीद बंधी है, जो न्यायपालिका की ओर से आ रही है।
एक पखवाड़े पहले मैंने तमिल फीचर फिल्म जय भीम  देखी, जो इरुला समुदाय के एक आदिवासी की पुलिस हिरासत में यातना से मरने की वास्तविक कहानी बयान करती है। उससे उस चोरी के लिए पूछताछ की जा रही थी, जो उसने की ही नहीं थी। अंतत: यह फिल्म अपराधियों को दोषी ठहराए जाने पर समाप्त होती है, युवा विधवा को मुआवजा दिया जाता है, और यह सब एक वकील चंद्रू की दृढ़ता और मद्रास उच्च न्यायालय की संवेदनशीलता से मुमकिन होता है। चंद्रू आगे चलकर जज बन गए थे और अपनी ईमानदारी के लिए बहुत सम्मान के साथ सेवानिवृत्त हुए। इस घटना या फिल्म ने हाल के दिनों में न्यायपालिका के प्रति मेरे विश्वास को मजबूत करने के लिए कुछ खास किया है। 18 नवंबर को मिंट लाउंज  में आंखें खोल देने वाले एक कॉलम में गीता अरवमुदन बताती हैं कि हिरासत में यातना व मौतें भारत में पुरानी बात हैं। वह प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना के शब्दों का हवाला देती हैं कि पुलिस स्टेशनों में मानवाधिकारों को सर्वाधिक खतरा है।... पुलिस की ज्यादतियों को रोकने के लिए कानूनी सहायता के सांविधानिक अधिकार के बारे में सूचना का प्रसार और मुफ्त कानूनी सहायता सेवाओं की उपलब्धता जरूरी है।
उम्मीद से मेरा तात्पर्य यही है। भारत ने 18 अक्तूबर, 1997 को अत्याचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन एक चौथाई सदी बीत जाने के बावजूद इस पर हस्ताक्षर की पुष्टि शेष है। क्या उच्च न्यायपालिका को यह पूछने के लिए प्रेरित किया जाएगा कि यह हिचकिचाहट क्यों है? हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एक लड़की के यौन उत्पीड़न के आरोप से एक व्यक्ति को इस आधार पर बरी कर दिया गया था कि आरोपी ने त्वचा से त्वचा के संपर्क के बिना उसे छुआ था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘स्पर्श’ की परिभाषा को एक संकीर्ण और पांडित्यपूर्ण परिभाषा तक सीमित करना ‘बेतुकी व्याख्या’ होगी। जजों ने कहा कि यौन इरादे मायने रखते हैं। दोषी को तीन साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई है। कमजोर बालिकाओं और उनकी देखभाल करने वालों के लिए ये कुछ चीजें आत्मविश्वास जगाने वाली और प्रेरणादायक हो सकती हैं।
विश्वास बढ़ाने की सबसे ताजा मिसाल लखीमपुर खीरी में किसानों की मौतों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के रूप में सामने आई है। कुछ चीजें हैं, जो देश के महत्वपूर्ण संस्थानों के प्रति हमारी उम्मीदों को और अधिक बहाल कर सकती हैं। वैसे, देश की न्यायपालिका ने न्याय चाहने वालों को हमेशा आश्वस्त नहीं किया है। न्यायाधीश भी अपनी चिंताओं के साथ इंसान ही हैं। वे निर्णायक रूप से हस्तक्षेप करने का मौका चूक भी सकते हैं। लेकिन बहरहाल, घटती उम्मीदों की उछाल को न्यायपालिका ने थाम लिया है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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