भारत में संक्रमण भले घटा हो, पर खतरा नहीं टला
पिछले पांच हफ्तों में रोजाना के नए कोरोना मरीजों की संख्या 90,000 से घटकर अब करीब 60,000 पर आ गई है। कोविड-19 से जुडे़ अन्य मानकों में भी सुधार दिख रहे हैं। हालांकि, ये आंकड़े भ्रामक हैं। यह तो अब मान...
पिछले पांच हफ्तों में रोजाना के नए कोरोना मरीजों की संख्या 90,000 से घटकर अब करीब 60,000 पर आ गई है। कोविड-19 से जुडे़ अन्य मानकों में भी सुधार दिख रहे हैं। हालांकि, ये आंकड़े भ्रामक हैं। यह तो अब मान ही लिया गया है कि संक्रमितों की संख्या और मृत्यु दर हमेशा वास्तविकता से कम बताई जाती हैं। मगर ताजा आंकड़े दो कारणों से खतरनाक हैं। पहला, छह हफ्ते पहले की तुलना में आज संक्रमण और हकीकत के बीच की खाई ज्यादा गहरी हो गई है और यह लगातार गहरी होती जा रही है। दूसरा, स्थिति बिगड़ने के बावजूद देश यह मानने लगा है कि हम बुरे दौर से निकल चुके हैं और हालात सुधर रहे हैं। छह हफ्ते पहले, जब आंकड़े बेशक कम बताए जाते थे, यह जरूर कहा जाता था कि महामारी फैल रही है। मगर आज महामारी बढ़ रही है, और हम यह मान चले हैं कि संक्रमण घटने लगा है।
इसको समझने के लिए उत्तर प्रदेश और कर्नाटक की तुलना करके देखिए। पिछले कुछ हफ्तों से कर्नाटक में दैनिक संक्रमण का सात दिनों का औसत 7,000 से 10,000 के बीच है, जबकि उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 5,000-6,000 से घटकर 3,000 पर आ गया है। इतना ही नहीं, 22.5 करोड़ की जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश में प्रति दस लाख की आबादी पर 2,000 लोग कोरोना के शिकार हैं, जबकि 6.8 करोड़ की आबादी वाले कर्नाटक में 11,500 लोग। जब उत्तर प्रदेश जन-स्वास्थ्य व तंत्र की प्रभावकारिता जैसे मानकों में कर्नाटक से पीछे हो और उसके यहां जनसंख्या घनत्व भी कर्नाटक के मुकाबले ढाई गुना ज्यादा हो, तो क्या यह माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश चमत्कारिक रूप से कर्नाटक से बेहतर है? इस पहेली का हल टेस्ट यानी परीक्षण के आंकड़ों से हम निकालने का प्रयास करते हैं।
कर्नाटक ने प्रति दस लाख आबादी पर 1,00,000 टेस्ट किए हैं, जबकि उत्तर प्रदेश ने 57,000। कर्नाटक में 80 फीसदी आरटी-पीसीआर टेस्ट हुआ है, जबकि उत्तर प्रदेश ने 70-80 फीसदी एंटीजन। उल्लेखनीय है कि आरटी-पीसीआर में जहां गलत नतीजे मिलने की आशंका नाममात्र की होती है, वहीं एंटीजन टेस्ट में 20 से 50 फीसदी तक नतीजे के गलत आने का डर रहता है। जाहिर है, गलत नतीजों से संक्रमण का पता लगाने में चूक हो सकती है। वैसे, इस मामले में ज्यादातर राज्यों की यही कहानी है। अगस्त के आखिरी दिनों से देश में रोजाना दस लाख के करीब टेस्ट हो रहे हैं, लेकिन इनमें से कितने एंटीजन टेस्ट हो रहे हैं, इसका खुलासा नहीं किया जा रहा। हालांकि, जो थोड़े-बहुत आंकडे़ उपलब्ध हैं और जो हमने अपने अध्ययन में जुटाए हैं, उनसे यह पता चलता है कि कुल टेस्ट में करीब आधे एंटीजन किए जा रहे हैं। कई राज्यों में तो यह अनुपात 80 फीसदी तक है। ग्रामीण जिलों और शहरी मलिन बस्तियों में काफी ज्यादा यही टेस्ट किए जा रहे हैं।
ऐसा करने की दो वजहें हैं। पहली, सभी राज्यों ने कोरोना की जांच बढ़ाने का प्रयास किया है। टेस्ट को लेकर हर स्तर पर रोजाना के लक्ष्य सौंप दिए गए हैं। दूसरी वजह, एंटीजन टेस्ट करना आसान है और इसका नतीजा चंद मिनटों में मिल जाता है, जबकि आरटी-पीसीआर टेस्ट के नतीजे घंटों बाद मिलते हैं। फिर, कई राज्यों में पर्याप्त व्यवस्था न होने के कारण इसके नतीजे दो से छह दिनों में आते हैं। ऐसा नहीं है कि कोई राज्य जान-बूझकर डाटा छिपाने की कोशिश कर रहा है, बल्कि डाटा जमा करने का हमारा तंत्र ही ऐसा है कि वह महत्वपूर्ण आंकड़ों को नजरअंदाज कर रहा है। उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के तमाम बड़े प्रदेशों का यही हाल है। इसी वजह से यह महामारी अब छोटे-छोटे शहरों और गांवों तक में फैल गई है। और हम आंखें मूंदे हुए हैं।
हमें यह समझना होगा कि अपर्याप्त और गलत टेस्ट का नतीजा अंतत: सभी को भुगतना पड़ सकता है। हालांकि, इससे बचने का रास्ता बिल्कुल सीधा है। डाटा-सिस्टम बदलें। आरटी-पीसीआर टेस्ट को तेज किया जाए, गांवों में भी उसकी पहुंच बनाई जाए। एंटीजन टेस्ट सीमित करें, और सिर्फ वहीं करें, जहां संक्रमण की तुरंत पहचान आवश्यक हो। इसके अतिरिक्त, वायरस पर जीत की घोषणा का उत्साह भी हमें जज्ब करना होगा। 1918 की स्पैनिश फ्लू का सबक यही है कि उसे सच्चाई के हथियार से हराया गया था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)