वे बचेंगे, तभी हमारी लोक संस्कृति भी बच पाएगी
कोरोना महामारी के इस दौर में भविष्य को लेकर जिस तरह दुनिया चिंतित है, उसमें कलाकारों, कलाओं, लेखकों और साहित्य की गति को लेकर भी अनेक तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। हमारे देश में ऐसे हजारों-लाखों...
कोरोना महामारी के इस दौर में भविष्य को लेकर जिस तरह दुनिया चिंतित है, उसमें कलाकारों, कलाओं, लेखकों और साहित्य की गति को लेकर भी अनेक तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। हमारे देश में ऐसे हजारों-लाखों कलाकार हैं, जो विभिन्न प्रदेशों की आंचलिकता और वहां की लोक व आदिवासी संस्कृति के मूल्यवान प्रतिनिधि हैं। ये कलाकार इन राज्यों के सुदूर अंचलों में निवास करते हैं। गायन से जुडे़ कलाकारों के समूह में पांच से लेकर दस कलाकार होते हैं। इसी तरह, पारंपरिक नृत्य से जुड़े समूहों में नर्तकों और वादकों की संख्या 12 से 20-25 तक होती है। देश के बडे़ सांस्कृतिक आयोजनों में इन कलाकारों की प्रस्तुति से अचंभित शहरी सभ्यता जब इनको दाद देती है, इन्हें महान कलाकार ठहराती है, तब ये कलाकार दुनियादारी की तमाम औपचारिकताओं व नकलीपन से दूर कुछ कह नहीं पाते, सिवाय बार-बार विनयपूर्वक प्रणाम करने के। ये कलाकार अपने अंचल से निकल सरहद पार जाकर भारतीय अध्यात्म, संस्कृति और परंपरा का प्रदर्शन करते हैं। ऐसे कलाकारों का इन दिनों क्या हाल हो रहा होगा, इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है।
गौर करने वाली बात यह भी है कि एक ही समूह, विधा या ग्रुप के कलाकार कई बार एक-दूसरे से काफी दूर अलग-अलग गांव में रहते हैं, और अवसर मिलने पर ये एक जगह इकट्ठा होते हैं, और फिर वहां से कार्यक्रम स्थल पर पहुंचते हैं। ऐसे एक-एक कलाकार की घर-गृहस्थी और जीवन-यापन की हम कल्पना कर सकते हैं कि जब उनके पास महीनों तक एक भी कार्यक्रम नहीं होगा, तब वे क्या करेंगे? कैसे जिएंगे? आखिर कौन उनके चेहरे की निराशा व पीड़ा को पढे़गा और सम्मानजनक ढंग से उनकी मदद करने की पहल करेगा?
यहां एक सुखद बात यह है कि हमारे देश के कुछ बडे़ कलाकारों, कला समूहों और संस्थाओं की इस तरफ नजर गई है और उन्होंने इस काम के लिए कुछ धनराशि उपलब्ध भी कराई है। ऐसी कोशिशें सराहनीय हैं, मगर ये फौरी मदद हैं। हो सकता है कि कुछ कलाकारों की इससे थोड़ी-बहुत मदद हो जाए, लेकिन इससे समस्त लोक कलाकारों का काम नहीं बनने वाला, क्योंकि संस्कृति के क्षेत्र में कलाओं के आगे अभी लंबे समय तक अनिश्चितता व अस्थिरता बनी रहने वाली है। जहां तक मुख्यधारा के नामी-गिरामी कलाकारों की बात है, तो व्यवसायी और प्रायोजक इन परिस्थितियों में भी उनके लिए संभावना तलाश ही लेंगे। बुक माई शो, सिनेमा की तर्ज पर ऐसी शुरुआत हो भी चुकी है, जिसमें शुल्क अदा करके आप अपना आईडी, पासवर्र्ड प्राप्त करसकते हैं और फिर किसी बडे़ गायक या वादक की ऑनलाइन संगीत सभा का लुत्फ उठा सकते हैं।
ऐसा प्लेटफॉर्म लोक और आदिवासी संस्कृति से जुडे़ गायकों, वादकों, नर्तकों, चित्रकारों, शिल्पियों आदि को शायद न मिल सके। ऐसे में, छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य नाचा, बुंदेलखंड का स्वांग, उत्तर प्रदेश की नौटंकी, मांगणियार कलाकारों, गोंड आदिवासियों के नृत्य व वाद्य संगीत आदि का संरक्षण किस तरह से हो सकेगा, इसके बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। केंद्र व राज्य सरकार के स्तर पर इसकी एक पारदर्शी कार्ययोजना बनाकर शीघ्र पहल की जानी चाहिए। सरकार ने श्रमिकों और कृषकों के खातों में जिस प्रकार से आर्थिक सहायता पहुंचाई है, वह वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण है। इसी तरह, कलाकारों, जनपदीय लेखकों, कवियों, गीतकारों पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। वास्तव में, ये गरीब कलाकार ही लोक, आदिवासी संस्कृति को पीढ़ियों से सहेजते आए हैं। उनके जीवन-यापन का बंदोबस्त होना चाहिए।
मध्य प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग ने इस लिहाज से एक अच्छी पहल की है। इसने शुरुआती तौर पर आर्थिक रूप से अक्षम पांच हजार लोक व आदिवासी कलाकारों, लेखकों को चिह्नित करते हुए उन्हें मानदेय देने का काम शुरू किया है। इस तरह की कल्याणकारी पहल अन्य राज्य सरकारें भी कर सकती हैं। कितने ही कलाकार अपने बच्चों के मुंह पर रंग से दाढ़ी-मूंछ बनाकर नट के करतब दिखाते मिलते हैं। सोचिए, कठपुतली कलाकारों की कितनी मजबूरियां होंगी इस समय में? इन सबकी सुध लेकर जरूरतमंद गरीब कलाकारों तक कोई मदद पहुंचती है, तो यह सचमुच एक बड़ा काम होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)