सामाजिक विषमता मापने के जरूरी तरीके हमें चाहिए
बीते कुछ वर्षों में भारत के कई राज्यों ने जातियों व उप-जातियों का विस्तृत आंकड़ा इकट्ठा किया है। इस महीने की शुरुआत में बिहार ने तो अपनी जाति-सर्वेक्षण रिपोर्ट विधानसभा में भी पेश कर दी, और इस तरह...

बीते कुछ वर्षों में भारत के कई राज्यों ने जातियों व उप-जातियों का विस्तृत आंकड़ा इकट्ठा किया है। इस महीने की शुरुआत में बिहार ने तो अपनी जाति-सर्वेक्षण रिपोर्ट विधानसभा में भी पेश कर दी, और इस तरह के आंकड़े सार्वजनिक रूप से जारी करने वाला पहला राज्य बन गया है। इसमें संख्याओं को लेकर बेशक कुछ शिकायतें मिलीं, लेकिन सभी राजनीतिक दलों ने इसे स्वीकार भी किया और बिहार आरक्षण विधेयक को विधानसभा से सर्वसम्मति से स्वीकृति भी मिल गई। जब देश का एक गरीब सूबा अपने यहां जाति-सर्वेक्षण कर सकता है, तो अन्य राज्यों या केंद्र को ऐसी कवायद से कौन रोकता है? राष्ट्रव्यापी जाति-गणना से बचने के पीछे तीन कारण प्रमुख लगते हैं- जाति को वैध बनाने का डर, निहित स्वार्थ और आंकड़ों की विश्वसनीयता संबंधी चिंताएं।
दरअसल, 19वीं सदी में ब्रिटिश हकूमत द्वारा की गई जाति-गणना के पीछे एक बड़ी वजह थी, मूल आबादी में विभिन्न सामाजिक समूहों की हैसियत तय करना। राष्ट्रवादियों की नजर में यह देश के भीतर विभाजन पैदा करने का ब्रिटिश प्रयास था। उस गणना को जातियों की गलत गिनती के लिए भी आलोचना का सामना करना पड़ा। देश की आजादी के बाद अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) को छोड़कर बाकी तमाम जाति विवरणों को जनगणना के सवाल से बाहर कर दिया गया। राष्ट्र-निर्माण के शुरुआती वर्षों में जाति को संभवत: पुरानी सामाजिक संरचना के रूप में देखा जाता था, इसीलिए उसे खत्म करना जरूरी समझा गया। जाति समूहों की आधिकारिक स्वीकृति का अर्थ था, एक सामाजिक बुराई को वैध बनाने का जोखिम उठाना। 1950 के दशक में काका कालेलकर के नेतृत्व में गठित पहला पिछड़ा वर्ग आयोग ऐसी चिंताओं के कारण जाति-आधारित कोटा पर सर्वसम्मति बनाने में विफल रहा। नतीजतन, इसे खत्म करने के प्रयासों के बावजूद 21वीं सदी के भारत में जातियां कायम हैं।
जाति-आधारित गणना के विरोध का दूसरा कारण निहित स्वार्थ है। सवर्ण जातियों को डर है कि इससे आरक्षण का दायरा बढ़ाया जा सकता है। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सबल जातियों की चिंता है कि उप-जातियों पर सामाजिक-आर्थिक डाटा उनके व निचले ओबीसी तबकों के बीच की खाई को उजागर कर देगा। वहीं, ओबीसी में शामिल होने को इच्छुक कुछ अगड़ी जाति-समूह मानते हैं, ऐसे आंकड़े उनके पिछडे़पन के दावों को कमजोर कर सकते हैं। तीसरी चिंता आंकड़ों की शुचिता की है। जनगणना अधिकारी जाति विवरण के काम से इसलिए भागना चाहते हैं, क्योंकि उनकी नजर में इससे जनगणना के काम प्रभावित हो सकते हैं। क्या होगा यदि ताकतवर उप-जातियां सरकारी उदारता में ज्यादा हिस्सेदारी की मांग करने के लिए अपनी संख्या बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर दें? क्या होगा यदि जनगणना करने वाले कर्मचारी समूह प्रभावित करने लगें? ऐसी गणना करने वाले राष्ट्रों की विफलता को देखते हुए ये चिंताएं निराधार नहीं हैं।
पूर्व जनगणना अधिकारी बी के रॉय बर्मन ने 1998 के अपने लेख में यह चेतावनी दी थी कि एक व्यापक जाति गणना विभिन्न जातियों को एक समूह में जोड़ने या एक जाति को अलग-अलग हिस्सों में बांटने की मांग हो सकती है। उन्होंने जाति विवरण पाने के लिए जनगणना कार्यालय को फील्ड स्टडी करने का सुझाव दिया था। 1961 की जनगणना में ऐसा किया गया था, जिसका नेतृत्व बर्मन ने खुद किया था। उनके मुताबिक, उस वक्त वैधानिक जनगणना आंकड़ों के अलावा, जाति विवरण जुटाने के लिए गांवों व शादियों का अनधिकृत सर्वेक्षण भी किया गया। इसका फायदा मिला। अभी हो रही जाति गणना की चर्चा के निहितार्थ काफी हद तक चुनावी हैं। इसमें ऐसी गणना की प्रक्रिया पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा, जितना दिया जाना चाहिए। जबकि, 2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना होमवर्क की कमी के कारण जाति-वार विवरण देने में विफल रही थी। लिहाजा, अगली गणना तभी कारगर होगी, जब इस तरह की कवायद को शुरू करने से पहले इससे जुड़े तमाम मुद्दों पर गहन चर्चा की जाए। अच्छा होगा कि बर्मन के सुझावों पर गौर किया जाए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
