किसी नेता-नेतृत्व के बिना भी होने लगे कामयाब आंदोलन
बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में अशांत अगस्त के बाद एक अनिश्चित सितंबर भी बीत रहा है। दुनिया ने देखा, बांग्लादेश में जून में शुरू हुआ एक छोटा छात्र आंदोलन जन विद्रोह में बदल गया, जिसने उस देश...
बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में अशांत अगस्त के बाद एक अनिश्चित सितंबर भी बीत रहा है। दुनिया ने देखा, बांग्लादेश में जून में शुरू हुआ एक छोटा छात्र आंदोलन जन विद्रोह में बदल गया, जिसने उस देश के प्रधानमंत्री को इस्तीफा देने और दिल्ली भागने के लिए मजबूर कर दिया। इधर, पश्चिम बंगाल में आरजी कर अस्पताल में प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ क्रूर बलात्कार व हत्या ने कोलकाता और अन्य जगहों पर हजारों लोगों को सड़कों पर उतार दिया। लोगों ने रोज जुलूस निकाला और रात्रि जागरण किया। इसमें सभी वर्ग के लोग शामिल हुए, पर ये लोग किसी भी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े थे। वैसे, कोलकाता की कहानी का भविष्य पूर्वनिर्धारित लगता है : इसमें समायोजन और संशोधन होंगे, पर कोई बुनियादी बदलाव नहीं आएगा।
वास्तव में, ये घटनाएं नेतृत्वहीन जन आंदोलनों के युग की नवीनतम उदाहरण हैं। अतीत में हमने अनेक ऐसी लामबंदियों को देखा है, जहां राजनीतिक दलों या संगठनों या नेताओं ने नेतृत्व किया है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में नमक सत्याग्रह और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति को ऐसे राजनीतिक आंदोलन के रूप में याद किया जा सकता है।
हालांकि, ऐसे आंदोलन बढ़ रहे हैं, जो स्वत: स्फूर्त होते हैं। किसी एक घटना से ऐसे आंदोलनों की शुरुआत होती है, जिनमें कोई एक नेता या नेतृत्व नहीं होता है। वास्तव में, यह एक संचित क्रोध होता है, जो ऐसे आंदोलनों में फूटता है, जिसे किसी एक तय नेतृत्व की जरूरत नहीं होती है। ऐसे आंदोलन किसी संगठन, राजनीतिक दल के बूते नहीं होते हैं, बल्कि सोशल मीडिया के माध्यम से होते हैं। ऐसे आंदोलनों में आम तौर कोई भी आंदोलनकारी यह बताने में सक्षम होता है कि उसका मकसद क्या है?
विरोध के इस नए स्वरूप की कंुजी दरअसल नई संचार तकनीक है। मोबाइल फोन ही बिखरे हुए जनसमूह को संगठित करने का सही साधन बन गया है। मोबाइल या सोशल मीडिया के जरिये लोगों को कम समय में कहीं भी जुटाया जा सकता है। यहां अचानक से उमड़ने वाली भीड़ को ‘फ्लैश मॉब’ कहा जाता है। अचानक उमड़ी भीड़ रेलवे स्टेशन पर नृत्य करने लगती है या पुलिस स्टेशन पर आगजनी करती है या कहीं सड़कों पर उमड़ आती है। अब लोगों के बीच संचार क्षमता इतनी शक्तिशाली है कि इसे यूरोप में धर्म, भाषा और राष्ट्र का पुनर्निर्माण करने वाले माध्यमों में प्रिंटिंग प्रेस के बाद दूसरा सबसे क्रांतिकारी माध्यम माना जाने लगा है।
दुनिया में नेतृत्वहीन जन आंदोलनों के कई उदाहरण हैं : साल 2011 का ‘अरब ्प्रिरंग’ आंदोलन ऐसा ही था। जो ट्यूनीशिया मेें शुरू हुआ और मिस्र, लीबिया, सीरिया, यमन व अन्य देशों में भी फैल गया, जिसके चलते अनेक शासकों को हटना पड़ा। ऐसे आंदोलन, बोलीविया, हांगकांग और म्यांमार में भी हुए हैं। कुछ जगहों पर लोकतंत्र समर्थक आंदोलनों को कुचला गया है, पर कई जगह कामयाबी मिली है।
सवाल यह है कि नेतृत्वहीन आंदोलनों से हम क्या सबक ले सकते हैं? कुछ आंदोलन कामयाब क्यों होते हैं और कुछ नाकाम क्यों हो जाते हैं? भारत में ऐसे आंदोलनों की क्या संभावना है?
अनेक देशों में ऐसे आंदोलनों के साथ सेना या पुलिस भी खड़ी हो जाती है। भारत में ऐसी स्थिति की कल्पना असंभव है, जिसमें सेना किसी प्रधानमंत्री को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दे। यहां लोगों द्वारा किए जाने वाले छोटे आंदोलन तो हो सकते हैं, पर राष्ट्रीय स्तर पर बिना नेतृत्व के जन आंदोलन खड़ा करना नामुमकिन है।
भारतीय समाज में धर्मों, भाषाओं, जातियों, जनजातियों और वर्गों के आधार पर अपने-अपने हित हैं। यहां तक कि हिंदू पहचान भी अखंड नहीं है। फिर भी शासकों को लोगों के असंतोष या रोष की पूरी चिंता करनी चाहिए। लोगों की किसी असहमति की समय रहते चिंता करना वास्तव में शासकों को जवाबदेह बनाता है। वैसे, ध्यान रहे, असहमति कोई विचारधारा नहीं है। नागरिकता संशोधन अधिनियम विरोधी आंदोलन से लेकर पश्चिम बंगाल में चल रहे संघर्ष तक, बढ़ती असहमति शासक वर्गों के लिए एक चेतावनी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)