खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत की कथित संलिप्तता का कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो का आरोप अति-दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत ने उचित ही इसे ‘अब्सर्ड’ (अनर्गल) और ‘मोटिवेटेड’ (खास मंशा से प्रेरित) कहकर खारिज कर दिया है। विदेश मंत्रालय ने सख्त शब्दों में यह भी कहा कि कनाडा में हत्या, मानव तस्करी और संगठित अपराध सहित कई अवैध गतिविधियों को मिली जगह कोई नई बात नहीं है। मामला यहां तक बढ़ गया कि कनाडा ने एक प्रमुख भारतीय राजनयिक को देश छोड़ने को कहा है, जिसके जवाब में भारत ने भी ऐसी ही कार्रवाई की। इस घटनाक्रम से दोनों देशों के रिश्ते निम्नतम स्तर पर आ गए हैं।
निज्जर की पिछले जून में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, जिसकी जांच के लिए वहां एक कमेटी गठित हुई थी। इस कमेटी की रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है, पर प्रधानमंत्री ट्रुडो ने भारत की ‘संलिप्तता’ की बात कर दी। निज्जर ‘सिख फॉर जस्टिस’ संगठन में नंबर दो की हैसियत रखता था। यह खुद को मानवाधिकार संगठन बताता है, पर वास्तव में यह भारत-विरोधी संगठन है, जिसके कारण 2019 में इसे नई दिल्ली ने प्रतिबंधित कर दिया था। निज्जर का अपना एक गुट भी था, जिसे वह ‘खालिस्तान टाइगर फोर्स’ बताया करता था। यह संगठन पिछले कुछ महीनों से कनाडा ही नहीं, अमेरिका, स्वीट्जरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन जैसे देशों में ‘पंजाब रेफरेंडम’ चला रहा है, जिसमें पंजाब को स्वतंत्र खालिस्तानी राष्ट्र घोषित करने की मांग है। हाल ही में इसने कनाडा में कुछ भारतीय राजनयिकों के साथ-साथ हमारे प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और विदेश मंत्री को भी धमकी दी है।
कनाडा में खालिस्तानियों की मौजूदगी काफी पहले से है। पिछली सदी के 70-80 के दशक में वे वहां गए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मिली छूट का भरपूर फायदा उठाया। 1985 में एअर इंडिया के विमान में विस्फोट की कड़ी भी कनाडा की धरती पर सक्रिय खालिस्तानी गुट से जुड़ी थी, जिसमें 300 से ज्यादा लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। ऐसे गुट वहां खुद को ‘सभ्य रूप’ में परोसते हैं, इसलिए उनको सरकारी छूट मिल जाती है और उनकी सक्रियता जारी रहती है।
यह मसला दोनों देशों के संबधों में दरार की वजह रहा है। भारत ने कनाडा सरकार से यह बराबर मांग की है कि वह खालिस्तानियों की गतिविधियों व उनकी फंडिंग पर रोक लगाए, मगर ‘सिख फॉर जस्टिस’ जैसे संगठन ट्रुडो की लिबरल पार्टी को समर्थन देते हैं। यहां तक कि 2015 के चुनाव में भी, जिसमें ट्रुडो चुनकर आए थे, ऐसे संगठनों का साथ लिया गया था। नतीजतन ट्रुडो के मंत्रिमंडल में कई मंत्री खालिस्तान-समर्थक हैं। इसीलिए भारत की मांग को अनसुना कर दिया जाता है।
यह सही है कि कनाडा और भारत में लोगों के आपसी रिश्ते सौहार्दपूर्ण हैं। वहां करीब 13 लाख भारतवंशी रहते हैं। दोनों देशों में कारोबारी व सामरिक ही नहीं, तमाम तरह के संबंध हैं, जबकि खालिस्तान का समर्थन करने वाले लोगों का तबका काफी छोटा है। फिर भी, यह मुद्दा दोनों देशों के आपसी रिश्तों को प्रभावित करता है। दोनों देशों के बीच अभी करीब आठ अरब डॉलर का आपसी कारोबार होता है और कनाडा का दसवां सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भारत है। यही नहीं, हाल में कनाडा ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए अपनी रणनीति जारी की है, जिसमें भारत को अहम साझेदार माना है। लिहाजा, ऐसे किसी बयान से दोनों देशों की बहु-आयामी साझेदारी प्रभावित हो सकती है।
कनाडा सरकार को गंभीरता से सोचना होगा कि भारत के साथ संबंध बिगड़ने पर उसे कितना नुकसान हो सकता है। अगर खालिस्तान समर्थक समूह वहां जड़ें जमा लेते हैं, तो उसकी आंच से वह भी नहीं बच सकेगा। ऐसे समय में, जब जी-20 का सफल आयोजन हुआ है, दिल्ली घोषणापत्र में आतंकवाद का जिक्र किया गया है, तब कनाडाई प्रधानमंत्री का बयान परिपक्वता की निशानी नहीं है। इसके बजाय, कनाडा को खुलकर आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ सख्त रुख अपनाना चाहिए था। कहीं ऐसा न हो कि विश्व में कनाडा की छवि आतंकवाद समर्थक देश की बन जाए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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