पश्चिम एशिया में शांतिदूत की तरह कैसे सामने आया चीन
बीते वर्षों में भारत की शांतिदूत की भूमिका से सबक लेते हुए बीजिंग ने सऊदी अरब और ईरान के बीच मध्यस्थता कर कूटनीतिक दुनिया को चौंका दिया। परंपरागत रूप से भू-राजनीति से अलग-थलग होने के बावजूद चीन ...

बीते वर्षों में भारत की शांतिदूत की भूमिका से सबक लेते हुए बीजिंग ने सऊदी अरब और ईरान के बीच मध्यस्थता कर कूटनीतिक दुनिया को चौंका दिया। परंपरागत रूप से भू-राजनीति से अलग-थलग होने के बावजूद चीन संघर्षग्रस्त पश्चिम एशिया में एक प्रमुख खिलाड़ी बनने को तैयार है। यह भले प्रतीकात्मक शुरुआत हो, पर यह इस क्षेत्र में अमेरिकी ताकत की सीमाओं और उभरती बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था को दर्शाता है। पश्चिम एशिया के देश अपना-अपना हित तलाशने में लगे हैं और दुनिया में सक्रिय ताकतों का दोहन करने की तमन्ना रखते हैं।
इस क्षेत्र में कुछ चुनिंदा देशों के समूह के लिए सुरक्षा गारंटर के रूप में अमेरिकी भूमिका हमेशा से खास रही है। यहां अमेरिका जंग और अमन के सवालों को आकार देने वाली अहम ताकत रहा है। शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ इस क्षेत्र के देशों को आर्थिक व सैन्य सहायता के रूप में विकल्प दे सकता था और उसने दिया भी। हाल के दशकों में हमने इस क्षेत्र में एकध्रुवीय दौर को विनाशकारी रूप में देखा है। इराक (2003), लीबिया (2011), सीरिया (2012) में सैन्य हस्तक्षेप और ईरान पर नियंत्रण की कोशिश, सभी का मकसद एकध्रुवीय सुरक्षा संरचना तैयार करना था। हालांकि, एकधु्रवीय सुरक्षा संरचना तैयार नहीं हुई, इसके बजाय दुनिया ने अस्थिरता, छद्म युद्ध और अंतत: एक शक्ति शून्य देखा, जिसे संभालने में अमेरिका ने खुद को अस्थिर पाया।
अब दुनिया फिर से शक्ति और प्रभाव के बहुध्रुवीय बंटवारे की ओर बढ़ रही है, ईरान, सऊदी अरब और शायद इजरायल जैसी क्षेत्रीय शक्तियां भी मानने लगी हैं कि अकेले वाशिंगटन एक सुरक्षा संरचना को बनाए नहीं रख सकता। सीरिया युद्ध के बाद से रूस ने पहले ही दिखा दिया है कि उसके पास इस क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की क्षमता व इच्छाशक्ति है। यह अमेरिका की ओर से किसी देश में शासन बदलने का आखिरी अभियान था।
यहां चीन की भूमिका अलग है। यहां वह बुनियादी हताशा और युद्ध की थकान पर अपनी नीति और पहल को खड़ा कर रहा है। अब अमेरिका ऐसी भूमिका को नहीं निभा सकता, क्योंकि उसे एक खेमे इजरायल/जीसीसी खेमे की ओर झुकते देखा गया है।
अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने और साफ कर दिया कि उन दो देशों (सऊदी अरब और ईरान) के साथ हमारे रिश्तों को देखते हुए हम मध्यस्थ बनने की स्थिति में नहीं थे। चीन जैसे अन्य देशों द्वारा तनाव में कमी लाना मूल रूप से अमेरिकी हितों के प्रतिकूल नहीं है।
रूस द्वारा समर्थित चीन जब सीरिया और ईरान के सुरक्षा भागीदार के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना जारी रखता है, तो वास्तव में वह सक्रिय रूप से बहुध्रुवीय सुरक्षा ढांचे को बढ़ावा देगा। यह कूटनीतिक घटना एक अन्य प्रमुख प्रवृत्ति को भी दर्शाती है, दुनिया की भू-आर्थिक शक्ति यूरेशिया और एशिया में स्थानांतरित हो रही है। यूरोप ने अपनी अदूरदर्शी नीतियों के चलते खुद को एक तरह से बाहर कर लिया है, जबकि संसाधनों और ऊर्जा से समृद्ध पश्चिम एशियाई देश व्यापार, निवेश सहयोग के साथ एकजुट होना चाहते हैं।
चीन की ताकत वाकई बढ़ रही है। उसने हाल में यूरोपीय संघ को पछाड़ा है। पहले यूरोप के साथ पश्चिम एशिया का व्यापार सबसे ज्यादा था, पर अब चीन आगे हो गया है। चीन ने पश्चिम एशिया के सबसे बड़े वाणिज्यिक भागीदार के रूप में एक दशक पहले ही अमेरिका को पीछे छोड़ दिया था। साल 2021 में पश्चिम एशिया से चीन का आयात अमेरिकी आयात की तुलना मेें करीब चार गुना ज्यादा था। इस क्षेत्र में चीन का निर्यात भी अमेरिकी निर्यात से ढाई गुना अधिक था। अब पश्चिम एशियाई ताकतें सऊदी अरब-ईरान मिलाप के साथ भविष्य की ओर देख रही हैं। बीजिंग सिर्फ पहले से मौजूद संतुलन को नई दिशा में झुका रहा है, विडंबना है, अमेरिका व रूस ने भी स्वागत किया है।
भारत के लिए यह बदलाव ऐसी सच्चाई को दर्शाता है, जो हाल के वर्षों में नई दिल्ली के सामने रही है। ईरान व सऊदी अरब के साथ एक स्थिर पश्चिम एशिया भारत के हित में है। यूरेशियाई अर्थव्यवस्था से जुड़ने से पश्चिम एशियाई देशों का किसी देश को अस्थिर करने या छद्म संघर्षों में निवेश घटेगा, यह भारत के लिए फायदेमंद है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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