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और अधिक राहत देने के लिए तैयार रहे सरकार

कोविड-19 से चल रही जंग के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मंगलवार का संबोधन राहत का एक झोंका था। उन्होंने पहले की तुलना में (जिसमें लोगों से थाली बजाने और दीप जलाने का आह्वान किया गया था) इस बार...

Rohit संघमित्रा एस आचार्य,  प्रोफेसर, जेएनयू, Wed, 15 April 2020 09:06 PM
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और अधिक राहत देने के लिए तैयार रहे सरकार


कोविड-19 से चल रही जंग के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मंगलवार का संबोधन राहत का एक झोंका था। उन्होंने पहले की तुलना में (जिसमें लोगों से थाली बजाने और दीप जलाने का आह्वान किया गया था) इस बार ठोस उपाय करने की बात कही। लॉकडाउन की समय-सीमा कमोबेश तीन हफ्तों के लिए बढ़ाने को प्रधानमंत्री ने एक कठिन फैसला बताया है, लेकिन यह भी कहा कि सिकुड़ती अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण लोगों की जान बचाना है, तो क्या इस कथन से अब यह भरोसा किया जाए कि लिंचिंग या सामाजिक पहचान के आधार पर होने वाली हत्याओं के मामलों में भी सरकार ऐसा ही रुख अपनाएगी?
बहरहाल, जिन सात बातों पर उन्होंने जनता से साथ मांगा, उनमें पहली थी, बुजुर्गों का विशेष ध्यान रखना। बुजुर्गों के लिए चिंता दिखाने की दिशा में यह एक सकारात्मक बदलाव है। जबकि आखिरी बात थी, डॉक्टरों के रूप में फ्रंटलाइन योद्धाओं की चिंता। इसमें नर्स, वार्ड ब्यॉय, बिस्तर वगैरह बदलने वाले सफाईकर्मी आदि स्वास्थ्यकर्मियों का जिक्र उन्होंने नहीं किया, लेकिन यह मानना चाहिए कि उनकी ऐसी मंशा नहीं रही होगी। अच्छी बात है कि सफाईकर्मियों को पहली बार योद्धाओं का दर्जा दिया गया। गरीबों का विशेष उल्लेख उन्होंने किया, लेकिन उनकी चिंता सभी सातों बातों में दिखाई देती है। हालांकि उन्होंने ऐसा कोई तंत्र बनाने का जिक्र नहीं किया कि पीएम गरीब कल्याण योजना का लाभ लाभार्थियों तक किस तरह पहुंचेगा, वह भी तब, जब एक बड़ी आबादी के पास राशन कार्ड जैसे दस्तावेज नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने रबी फसल की कटाई की भी चर्चा की, जिसे समझा जा सकता है। कटनी के लिए श्रमिकों का खेतों में पहुंचना जरूरी है और इसके लिए आवश्यक है कि जहां-तहां फंसे श्रमिकों को अपने गंतव्य तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाए। लेकिन ऐसा करना फिलहाल संभव नहीं होगा, स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध मजदूरों से ही कटनी करना आज किसानों की मजबूरी है। कोविड-19 से बचाव के तमाम उपायों को अपनाते हुए मजदूरों की सीमित आवाजाही मजबूरी है। 
प्रधानमंत्री की बातें तभी साकार होंगी, जब जरूरतमंद दिहाड़ी श्रमिकों तक वाकई मदद पहुंचेगी? मजदूरों में से ज्यादातर दलित और आदिवासी हैं। वे अमूमन लघु व मध्यम उद्योगों में काम करते हैं। लॉकडाउन की बढ़ी समय-सीमा में ये उद्योग किस तरह पार पाएंगे, किस तरह से रियायतों का लाभ उठाएंगे, यह सरकार को सुनिश्चित करना होगा। खासतौर से इसलिए, क्योंकि श्रमिक बिना दाना-पानी के घर में हैं। बेशक इनके लिए भोजन की व्यवस्था सुनिश्चित करने की बातें तमाम माध्यमों से की जा रही हैं, पर ऐसा करते हुए एक राष्ट्र और समुदाय के रूप में हमें इनके सम्मान का ख्याल भी रखना चाहिए।  प्रधानमंत्री ने हालिया संबोधन में लॉकडाउन के दिशा-निर्देशों का पालन करने पर जरूर जोर दिया गया, खासकर ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ पर अमल करने की बात उन्होंने फिर जोर देकर कही है। 
यह समझना होगा कि कोरोना वायरस से संक्रमित कोई भी इंसान सामाजिक रूप से अछूत नहीं है। हालांकि हम भारतवासी लंबे समय से जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, रंग, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव करते हुए सोशल डिस्टेंसिंग अपनाते रहे हैं, जो अपने-आप में दुखद है। इसलिए अभी दूरी बरतने की जो बात कही जा रही है, वह ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग’ है, जिसका इस्तेमाल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी 20 मार्च से करना शुरू कर दिया है। हमें भी अब अपने शब्द बदल लेने चाहिए।
प्रधानमंत्री की पांचवीं बात में गरीबों की देखभाल का आह्वान किया गया है। इस बाबत पीएम-केयर्स फंड की घोषणा की जा चुकी है। अच्छा होता, यदि पहले से मौजूद प्रधानमंत्री राहत राहत कोष के धन का भी इसमें उपयोग किया जाता। गरीबों की देखभाल नियोक्ताओं के कंधे पर भी डाली गई है और अनुरोध किया गया है कि वे उनके वेतन न काटें और न ही उन्हें नौकरी से निकालें। मगर दुर्भाग्य से ऐसा पहले से ही हो रहा है। यह जरूरी था कि लॉकडाउन-दो की घोषणा करते हुए बेरोजगार हो रहे लोगों की भी ज्यादा चिंता की जाती। सरकार को आगामी दिनों में आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए बहुत कुछ करने के लिए तैयार रहना होगा।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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