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अस्पतालों में सेहत सुधारने के काम आएंगी किताबें

मई के दूसरे सप्ताह में दिल्ली से सटे गाजियाबाद में कोरोना के मरीजों के मिलने का सिलसिला तेज था। मरीज भी भय और भ्रम के चलते बदहवास थे। उनके लिए क्वारंटीन या एकांतवास किसी सजा की तरह था। आए दिन...

अस्पतालों में सेहत सुधारने के काम आएंगी किताबें
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकारSun, 12 Jul 2020 11:17 PM
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मई के दूसरे सप्ताह में दिल्ली से सटे गाजियाबाद में कोरोना के मरीजों के मिलने का सिलसिला तेज था। मरीज भी भय और भ्रम के चलते बदहवास थे। उनके लिए क्वारंटीन या एकांतवास किसी सजा की तरह था। आए दिन क्वारंटीन सेंटर से मरीजों के झगड़े या तनाव की खबरें आ रही थीं। तभी जिला प्रशासन ने नेशनल बुक ट्रस्ट के सहयोग से बच्चों की कोई 200 पुस्तकें वहां वितरित कीं। उस समय वहां लगभग 250 लोग कोविड-19 के सामान्य लक्षण वाले या फिर एहतियातन थे। रंग-बिरंगी पुस्तकों ने कुछ ही देर में उनके दिल में जगह बना ली। जहां एक-एक पल बिताना मुश्किल हो रहा था, वहां उनका समय पंख लगाकर उड़ने लगा। डॉक्टरों ने भी माना कि पुस्तकों ने क्वारंटीन किए गए लोगों को तनाव रहित बनाया और उनमें सकारात्मकता का संचार किया। इसी को देखकर दिल्ली में भी छतरपुर स्थित राधास्वामी सत्संग में बनाए गए विश्व के सबसे बड़े क्वारंटीन सेंटर में हजारों पुस्तकों के साथ पुस्तकालय शुरू करने की पहल की गई है।
वैसे दुनिया के विकसित देशों के अस्पतालों में पुस्तकालय का अतीत सौ साल से भी पुराना है। अमेरिका में 1917 में ही सैन्य अस्पतालों में कोई 170 पुस्तकालय स्थापित किए गए थे। ब्रिटेन में सन 1919 में वार लाइब्रेरी की शुरुआत हुई। आज अधिकांश यूरोपीय देशों के अस्पतालों में मरीजों को व्यस्त रखने, उन्हें ठीक होने का भरोसा देने के लिए पुस्तकें देने की व्यवस्था है। ऑस्ट्रेलिया के सार्वजनिक अस्पतालों में तो ऐसे पुस्तकालय हैं, जहां से आम लोग, अर्थात जो मरीज नहीं हैं, वे भी पुस्तकें ले सकते हैं। इंग्लैंड के मैनचेस्टर के एक अस्पताल में तो पुस्तकों का वर्गीकरण रंगों में है, जैसे- पर्यावरण की पुस्तकों पर हरे रंग का बैज, जानवरों से जुड़ी पुस्तकों पर भूरे रंग का बैज। यहां जो मरीज या तीमारदार जितनी अधिक पुस्तकें पढ़ता है, उसे उस रंग के उतने ही बैज मिलते हैं, जिससे वह अस्पताल से विदा होते समय उस रंग से संबंधित कोई किताब उपहार में पाने का हकदार होता है। ऐसे ही कई प्रयोग स्पेन और जर्मनी के अस्पतालों में भी चल रहे हैं। 
हमारे देश में अंदाजन 38,000 अस्पताल हैं, जिनमें आठ लाख से अधिक मरीज हर दिन भर्ती होते हैं। इनके साथ तीमारदार भी होते हैं, तो एक मोटा अनुमान है कि कोई बीस लाख लोग चैबीसों घंटे अस्पताल परिसर में होते हैं। इनमें से बीस फीसदी ही बेहद गंभीर होते हैं, शेष बुद्धि से चैतन्य और ऐसी अवस्था में होते हैं, जहां उन्हें बिस्तर पर लेटना या फिर बाहर अपने मरीज का इंतजार करना उकताहट भरा काम लगता है। आमतौर पर बड़े अस्पतालों में तीमारदारों के लिए बने प्रतीक्षा कक्ष और मरीजों के निजी कक्ष में अब टीवी की व्यवस्था कर दी गई है, मगर इसका बहुत ज्यादा लाभ नहीं मिलता। ऐसे में, उन्हें किताबों का संग दिया जा सकता है। पुस्तकें एकांत में सबसे अच्छा साथ निभाती हैं। ये काले छपे हुए शब्द दर्द और उदासी के दौर में दवा का काम करते हैं। इसलिए अच्छी पुस्तकें लोगों को सात्विक मानसिक खुराक दे सकती हैं, जो उनके जल्दी रोगमुक्त होने में सहायक हो सकती है।
यदि देश के सभी जिला अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों और बड़े समूह के निजी अस्पतालों में अच्छी पुस्तकें रखी जाएं, प्रत्येक भर्ती मरीज से बहुत मामूली रकम लेकर किताबों को जारी करने का कार्ड बना दिया जाए, तो यह नए तरीके का पुस्तकालय अभियान बन सकता है। यदि प्रशासन और अस्पताल चाहें, तो हर शहर में कुछ साहित्य प्रेमी और सेवानिवृत्त जागरूक व्यक्ति ऐसे पुस्तकालयों के लिए नि:शुल्क सेवा देने को तैयार भी हो जाएंगे। अस्पताल के दिनों को मरीज और तीमारदार सामान्यत: अपनी जिंदगी का बुरा समय ही मानते हैं, पर यदि पुस्तकों से आया आत्मविश्वास और सकारात्मक ऊर्जा मरीज को दी जा रही दवा के साथ उत्प्ररेक का काम करे, तो अस्पताल से लौटने पर उनके पास ज्ञान, सूचना और जिज्ञासा का ऐसा खजाना होगा, जो जीवन भर उनका साथ निभाएगा। यही नहीं, पुस्तकें अस्पताल में काम कर रहे लोगों के लिए भी ऊर्जा का संचार कर सकती हैं। देश की स्वास्थ्य नीति बनाते समय हर अस्पताल में पुस्तकालय के लिए बजट का प्रावधान किसी नि:शुल्क दवा वितरण केंद्र की तरह ही प्रभावी कदम होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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