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Hindi News ओपिनियन नजरियाफिर ये पांव थककर किसी सड़क पर न पसरें

फिर ये पांव थककर किसी सड़क पर न पसरें

दुनिया की तमाम पूर्व महामारियों की तरह कोरोना का संक्रमण थमेगा और जिंदगी अपनी पटरी पर भी लौटेगी। इसमें विज्ञान का भी योग होगा और कुदरत का भी, लेकिन बहुत सारे लोगों के लिए जिंदगी की रफ्तार अब वही नहीं...

फिर ये पांव थककर किसी सड़क पर न पसरें
चंद्रकांत सिंह, सीनियर एसोशिएट एडिटर, हिन्दुस्तानWed, 01 Apr 2020 12:17 AM
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दुनिया की तमाम पूर्व महामारियों की तरह कोरोना का संक्रमण थमेगा और जिंदगी अपनी पटरी पर भी लौटेगी। इसमें विज्ञान का भी योग होगा और कुदरत का भी, लेकिन बहुत सारे लोगों के लिए जिंदगी की रफ्तार अब वही नहीं होगी, जो 24 मार्च से पहले थी। और इसकी पुष्टि दिल्ली-उत्तर प्रदेश बॉर्डर पर 25 से 30 तारीख के बीच के दृश्य, और अब केरल से आ रही तस्वीरें कर रही हैं। ये तस्वीरें उन प्रवासी मजदूरों-कामगारों की अंतहीन मजबूरियों का हिस्सा हैं, जो कुछ बेहतरी की आस में अपनी जड़ों से उखड़कर यहां-वहां चले जाते हैं।

केंद्र और राज्य सरकारों की सक्रियता और मानवीय भूमिका की बदौलत प्रवासी लोगों का प्रवाह अब उत्तर भारत में कुछ थमता दिख रहा है। कोरोना महामारी से निर्णायक लड़ाई में यह बेहद जरूरी है। मगर यही वह मौका है, जब सत्ता प्रतिष्ठान ईमानदारी से पड़ताल करें कि हमारे तंत्र को हाशिये के लोगों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाने के लिए क्या-क्या कदम उठाए जाएं। तब तो और, जब खुद सरकार का 2018-19 का इकोनॉमिक सर्वे कहता है कि देश का हर तीन में से एक कामगार न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत संरक्षित नहीं है। भारत में प्रवासी लोगों की संख्या इतनी अधिक है कि उनकी वैसे भी अनदेखी नहीं की जा सकती। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में अपने मूल निवास से दूर जाकर काम करने वालों की आबादी लगभग 14 करोड़ थी। जाहिर है, पिछले वर्षों में इनमें काफी इजाफा हुआ होगा। इसकी एक बानगी तो 2017 का आर्थिक सर्वेक्षण ही पेश कर देता है- साल 2011 से 2016 के बीच अंतर-राज्यीय प्रवसन करने वालों की संख्या सालाना करीब 90 लाख रही। जाहिर है, इनमें से ज्यादातर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग हैं। इसके बाद मध्य प्रदेश, बंगाल, उत्तराखंड, राजस्थान और पंजाब जैसे राज्यों का नंबर आता है। अब उत्तर प्रदेश व बिहार के लोगों ने सर्वाधिक पलायन क्यों किया, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।

हाल के दशकों में आप्रवासी भारतीयों के लिए तमाम नीतियां बनी हैं, और यह उचित भी है, लेकिन देश के भीतर के प्रवासी कामगारों की पीड़ा किसी ने कब सुनी? वे जो लोग सैकड़ों या हजार किलोमीटर दूर आकर अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहे थे, आखिर वे क्यों मधुबनी-मुजफ्फरपुर, भिंड-मुरैना या बलिया-गाजीपुर की सड़कों पर बेसुध निकल पडे़? कुछ बदनसीबों के लिए तो यह उनका आखिरी सफर बन गया। इनमें से ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर और असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत लोग हैं, जो रोज कुआं खोदकर रोज पानी पीते रहे हैं, उन्हें वह कुआं ही अचानक सूखता नजर आया। ऐसे लोग सिर्फ एक मजबूत राज्य-तंत्र के भरोसे ही रुक सकते थे। मगर इस प्रकरण ने उजागर कर दिया है कि इस मोर्चे पर अभी कितना काम करने की जरूरत है। राजधानी दिल्ली में तमाम राज्यों के सदन हैं, जिनमें वहां की सरकार का एक तंत्र काम करता है, क्या उसे इस समय सक्रिय भूमिका नहीं निभानी चाहिए थी? 

हर विपदा अपने पीछे कई अहम सबक छोड़ जाती है। कोरोना संक्रमण ने भी अभी तक कई खट्टे-मीठे अनुभव दिए हैं। जहां दुनिया के अनेक संपन्न देश तमाम संसाधनों के बावजूद हताश से दिख रहे हैं, वहीं कई अभावों के बीच भी भारतीय समाज में बहुत बेचैनी नहीं दिखती, तो इसकी वजह यहां का सामाजिक ताना-बाना है। तमाम शिकवे-शिकायतों के बावजूद यहां के लोग आधा निवाला बांटने में भरोसा रखते हैं। दशकों पहले हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक निबंध लिखा था-क्या निराश हुआ जाए। उसमें उन्होंने मानव मनोविज्ञान का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। दुख में हम दोषों को खोज-खोजकर निकालते हैं और गुणों के प्रति उदासीन हो जाते हैं, जबकि अच्छाई-बुराई तो हमारे जीवन के अनिवार्य पक्ष हैं, और वे हमारे साथ रहेंगे। हमारा समाज हमेशा सद्गुणों में अपनी आस्था रखता आया है, उनका सहारा लेकर उठ खड़ा हुआ है। इसीलिए आज जब कुछ लोग यह नारा गढ़ रहे हैं कि कोरोना पासपोर्ट लेकर आया और दर-बदर राशनकार्ड हुआ, तो वहीं अनेक जिम्मेदार पासपोर्टधारी बढ़-चढ़कर इस जंग में आर्थिक मदद दे रहे हैं। हमारे तंत्र को इन दोनों के बीच एक मजबूत पुल बनना होगा, ताकि फिर नन्हे पांव थककर, चूर होकर किसी सड़क पर न पसरें। वे जहां हैं, वहीं किसी भरोसे का दामन थामे जिंदा रहें।

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