चीन-अमेरिका की तनातनी में क्या होनी चाहिए रणनीति
अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी की ताइपे यात्रा के बाद चीन की चेतावनियों और मिसाइल अभ्यासों की बाढ़ ने एशियाई भू-राजनीति के नए अध्याय की भूमिका तैयार कर दी है...................

अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी की ताइपे यात्रा के बाद चीन की चेतावनियों और मिसाइल अभ्यासों की बाढ़ ने एशियाई भू-राजनीति के नए अध्याय की भूमिका तैयार कर दी है। हालांकि, यह स्थिति 1950 और 1990 के दशक जैसी खतरनाक नहीं जान पड़ती, लेकिन ताइवान-जलडमरूमध्य संकट का परिणाम गंभीर हो सकता है। बीजिंग ने चेतावनी दी है कि वह न सिर्फ अमेरिकी नौसेना की कमर तोड़ सकता है, बल्कि ताइवान की नाकेबंदी भी कर सकता है। यह उसकी उस योजना का हिस्सा है, जिसका मूल मकसद है, ताइवान की स्वतंत्रता को रोकना और यथास्थिति को नया रूप देने के लिए अधिकार हासिल करना। ताइवान की मौजूदा स्थिति में कोई भी प्रतिकूल बदलाव चीन की राष्ट्रीय पहचान को तार-तार कर देगा। जबकि, अमेरिका के लिए, ताइवान का नुकसान इस क्षेत्र में उसके सैन्य लाभ को स्थायी रूप से खत्म कर देगा। जाहिर है, ताइवान दोनों पक्षों के लिए काफी अहम है।
सवाल यह है कि भारत के लिए यह कितना महत्व रखता है? पिछले एक दशक से हमारे रणनीतिकार चीन के संदर्भ में भारत की भू-रणनीति को लेकर उलझन में हैं। क्षेत्रवाद के हिमायतियों की दलील है कि लंबे समय से विवादित सीमा पर बढ़ती सैन्य गतिविधियों के मद्देनजर हमें ऐसी विदेश नीति चाहिए, जो हमारे भू-राजनीतिक हितों को साध सके। दूसरी तरफ, समुद्री सुरक्षा को तवज्जो देने वाले इससे असहमत हैं, और कहते हैं कि भारत की सुरक्षा नीतियां समुद्र के रास्ते संचालित होती हैं। वे भारत से समुद्र में एक बड़ी भूमिका अपनाने व पश्चिमी प्रशांत सहित अन्य क्षेत्रों में संरक्षक बनने का आग्रह करते हैं। ‘क्वाड’ इसी विश्वास की अभिव्यक्ति है कि पूर्वी एशिया और दक्षिण एशिया एक ही इकाई है, जो इस विशाल हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र की निगरानी के लिए अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत को प्रेरित करते हैं।
जब नीतियों को जमीन पर उतारा जाता है, तब अमूमन उसके नतीजों की जानकारी साझा नहीं की जाती। क्षेत्रवाद के हिमायती चकित हैं कि हमारे जहाज भारतीय तटों से 4,000 किलोमीटर दूर एक मजबूत पीएलए (चीन की सेना) के खिलाफ फायरिंग लाइन में होंगे। देखा जाए, इस तरह के खतरे की आशंका को देखते हुए सरकार ने पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और जापान के साथ किसी भी तरह के सैन्य अभ्यास को अस्वीकार कर दिया है। वास्तव में, वाशिंगटन द्वारा नई दिल्ली को और अधिक ठोस सुरक्षा पहल अपनाने के लिए राजी करने के प्रयासों का कोई नतीजा नहीं निकल सका है।
भारत और अमेरिका द्वारा संयुक्त रूप से हिंद-प्रशांत की सुरक्षा सुनिश्चित करने की काल्पनिक छवि अब भी कई रणनीतिकारों के दिमाग में मौजूद है। पंडित नेहरू ने कभी कहा था, जमीन पर सुरक्षित रहने के लिए हमें समुद्र में भी अपनी सर्वोच्चता हासिल करनी चाहिए। पर नेहरू की तरह तत्कालीन रणनीतिकारों ने भी इस ब्रिटिश कहावत की भारत के भू-राजनीतिक संदर्भ की गलत व्याख्या की। ब्रिटेन और अमेरिका अपनी जमीनी सीमाओं की चिंता किए बिना समुद्री आकांक्षा को पूरा कर सकते थे, जबकि भारत के लिए ऐसा संभव न था। ऐसे में, जून, 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांगरी-ला (सिंगापुर) वार्ता में जो कुछ कहा, वह आज भी प्रासंगिक है। उस भाषण का मूल तत्व यही था कि ऐसे समय में, जब वर्चस्व में बदलाव, भू-राजनीतिक विचारों व राजनीतिक मॉडलों को लेकर दुनिया में होड़ लगी है, तब भारत पूरे एशिया में एक स्वतंत्र ताकत के रूप में खुद को पेश करेगा। कुछ के लिए यह गुटनिरपेक्षता पर नए सिरे से जोर देना था। प्रधानमंत्री ने खुद ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ शब्द का इस्तेमाल किया था।
चीन का उदय एक सच्चाई है, इसलिए यह हमें तय करना है कि हम उसको कैसे समझते हैं और उसका जवाब देते हैं? भले ही चीन और अमेरिका में अभी कोई घातक टकराव न हो, पर दोनों देशों के बीच जैसे तनाव हैं, उसको देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि क्षेत्र में फिलहाल स्थिरता आएगी। लिहाजा, 2020 का दशक भारत को अपनी आर्थिक व सैन्य ताकत को नई ऊंचाई देने और उप-महाद्वीप में स्थिरता की अगुवाई करने का मौका है, क्योंकि बड़ी ताकतें आपस में उलझी हुई हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)