क्या बिजली संयंत्रों में कोयले की कमी भारी पड़ेगी
अपने यहां बिजली उत्पादन केंद्रों के पास कोयले की कमी एक गंभीर मसला है। रिपोर्ट बताती है कि देश के 72 बिजली उत्पादन केंद्रों के पास जरूरी कोयले का तीन दिन का भंडार भी नहीं बचा है। सामान्य दिनों में...
अपने यहां बिजली उत्पादन केंद्रों के पास कोयले की कमी एक गंभीर मसला है। रिपोर्ट बताती है कि देश के 72 बिजली उत्पादन केंद्रों के पास जरूरी कोयले का तीन दिन का भंडार भी नहीं बचा है। सामान्य दिनों में उनके पास तीन हफ्ते से लेकर तीन महीने तक का स्टॉक रहता है, पर हालिया भू-राजनीतिक और मौसमी परिस्थितियों के कारण उनके सामने एक बड़ा संकट खड़ा हो गया है। इस मुश्किल की मुख्यत: तीन वजहें हैं।
पहली, हम नीतिगत कारणों से घरेलू कोयले पर ही भरोसा करते हैं और उसी का इस्तेमाल बिजली उत्पादन में करते रहे हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि विदेश से मंगाए जाने वाले उन्नत किस्म के कोयले का हम उपयोग नहीं करते, कुछ ही उत्पादन केंद्र इसके लिए विकसित किए गए हैं, मगर अभी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमत बढ़ जाने की वजह से उन केंद्रों ने भी घरेलू कोयले की खपत बढ़ा दी है। उल्लेखनीय है कि भारत में स्थानीय कोयला आमतौर पर 50 से 70 डॉलर प्रति टन मिल जाता है, जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में उन्नत किस्म के कोयले की कीमत 260 डॉलर प्रति टन से भी ज्यादा है। दूसरी वजह, बिजली की मांग में अचानक आई तेजी है। लॉकडाउन खत्म हो जाने के बाद तमाम आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू हो गई हैं, और गरमी की वजह से उत्तर व दक्षिण भारत में बिजली की खपत बढ़ गई है। इतना ही नहीं, मानसूनी बारिश ने कोयले की खनन-प्रक्रिया को काफी प्रभावित किया है। यानी, एक तरफ बिजली की मांग बढ़ गई है, तो दूसरी तरफ कोयले का उत्पादन घट गया है। इसके कारण बिजली उत्पादन केंद्रों पर अचानक बोझ बढ़ गया है।
तीसरी वजह, अक्षय ऊर्जा का पर्याप्त उत्पादन न हो पाना है। अभी मौसमी परिस्थितियों की वजह से सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा व जलविद्युत, तीनों से हमें उतनी मदद नहीं मिल पा रही, जितनी मिलती रही है। यहां यूरोपीय संकट गौर करने लायक है। यूरोपीय देश कोयले के विरुद्ध हमेशा से मुखर रहे हैं, इसलिए वे पवन ऊर्जा पर ज्यादा जोर देते हैं। मगर इन दिनों पवन ऊर्जा से पर्याप्त उत्पादन न होने की वजह से वे गैस की तरफ उन्मुख हुए। मगर गैस की कीमत में बढ़ोतरी के कारण अनिच्छा से ही सही, कई बिजली संयंत्रों ने कोयले का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। वहां कार्बन-टैक्स के बावजूद बिजली उत्पादन संयंत्रों का कोयले पर खर्च गैस की तुलना में कम है।
कुछ लोग इस संकट को वैश्विक परिस्थितियों से जोड़कर भी देख रहे हैं। चीन के उदाहरण दिए जा रहे हैं। मगर चीन में बिजली संकट की कुछ और कहानी है। उसने भू-राजनीतिक वजहों से अपने सबसे बडे़ कोयला निर्यातक ऑस्ट्रेलिया से कन्नी काट ली है। ऑस्टे्रलिया का कोयला काफी अच्छा माना जाता है और चीन ने अपने बिजली संयंत्रों को खासा उन्नत भी बना लिया है। मगर ऑस्ट्रेलिया का क्वाड (अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया का संभावित संगठन) में शामिल होना चीन को अखरने लगा है। नतीजतन, उसने ऑस्ट्रेलिया पर दबाव बनाने के लिए उससे होने वाले कोयला निर्यात को रोक दिया, जिसके कारण वह बिजली संकट की गिरफ्त में आ गया है। हम चाहें, तो अभी ऑस्ट्रेलिया से कोयला आयात कर सकते हैं। लेकिन इसकी कीमत काफी ज्यादा पड़ेगी और अगर इसका इस्तेमाल हमने शुरू किया, तो आने वाले दिनों में उपभोक्ताओं पर इसका आर्थिक भार पड़ सकता है।
ऐसे में, अपने यहां बिजली आपूर्ति में कटौती एक फौरी रणनीति हो सकती है। शहरों में शायद ही बिजली गुल हो, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली की आपूर्ति प्रभावित हो सकती है। इससे जाहिर तौर पर कृषि पर भी असर पड़ सकता है। हालांकि, यह संकट ज्यादा लंबा चलेगा नहीं। कोल इंडिया ने अपने उत्पादन बढ़ा दिए हैं और भंडारण-नीति में भी उसने कुछ बदलाव किए हैं। इसका असर जल्द ही दिख सकता है। वास्तव में, उसके सामने दोतरफा मुश्किल है। एक तरफ कोयले के खनन को कम करने और उस पर देश की निर्भरता घटाने का दबाव है, तो दूसरी तरफ, अक्षय ऊर्जा की अपनी मुश्किलों के कारण जब बिजली की मांग बढ़ती है, तो कोयले की आपूर्ति के लिए कोल इंडिया पर ही उम्मीद जताई जाती है। ऐसे में, अभी यही कहा जा सकता है कि इस कोयले संकट का हल भी वह जल्द निकाल लेगा।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)