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Hindi News ओपिनियन नजरियाताकि तलाक अभिशाप नहीं, नए जीवन का मोड़ बन जाए

ताकि तलाक अभिशाप नहीं, नए जीवन का मोड़ बन जाए

पहली मई को सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने शिल्पा शैलेश और वरुण श्रीनिवासन के मुकदमे में पति-पत्नी के बीच वर्षों से चली आ रही उलझनों का स्थायी निवारण कर दिया। इसके साथ तीन अन्य...

ताकि तलाक अभिशाप नहीं, नए जीवन का मोड़ बन जाए
Pankaj Tomarकमलेश जैन, वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्टTue, 02 May 2023 11:02 PM
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पहली मई को सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने शिल्पा शैलेश और वरुण श्रीनिवासन के मुकदमे में पति-पत्नी के बीच वर्षों से चली आ रही उलझनों का स्थायी निवारण कर दिया। इसके साथ तीन अन्य दंपतियों (नीति मालवीय बनाम राकेश मालवीय, अंजना किशोर बनाम पुनीत किशोर, और मनीष गोयल बनाम रोहिणी गोयल) के मुकदमों का भी फैसला सुनाया गया। कुल 61 पृष्ठों में आए इस निर्णय से तलाक आसान बनाने की दिशा में उल्लेखनीय कदम बढ़ाए गए हैं। दरअसल, वैवाहिक मामलों में दरार पिछले दो-ढाई दशकों में बढ़ी है। इस दरम्यान संसद से नए-नए कानून बने, जिनकी वजह से रिश्तों में सुधार होने के बजाय उलझन बढ़ती गई और अदालतों पर तलाक के मुकदमों को बोझ बढ़ता गया। इसकी शुरुआत 1983 से हुई है, जब 25 दिसंबर को भारतीय दंड संहिता में धारा 498-ए जोड़ा गया। इसने पत्नी को दहेज के लिए प्रताड़ित करने या अन्य प्रकार की क्रूरता करने के लिए पति और उसके परिजनों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करना आसान बना दिया। इसके तहत एफआईआर दर्ज होते ही पूरा परिवार, चाहे वह अलग-अलग राज्यों में रहता हो, गिरफ्तार कर लिया जाता, बेशक मुकदमे की विवेचना बाद में होती। 
इस बाबत एक जनहित याचिका (रिट पिटिशन नंबर 8/2003) मैंने खुद सर्वोच्च न्यायालय में 2003 में डाली थी, जिसमें न्यायालय ने कहा था कि वह ऐसा करने में असमर्थ है। उसने इसके लिए संसद और भारतीय विधि आयोग को आदेश व याचिका की कॉपी भेजने की बात कही थी। बाद के वर्षों में बदलाव हुआ, और अब परिवार जेल नहीं जाता, सिर्फ पति जा सकता है, वह भी स्पष्ट आधार पर। घरेलू हिंसा कानून का भी इसी तरह बेजा लाभ उठाया जाता रहा, जबकि इसमें आप सभी समस्याओं को एक ही अदालत में रख सकते हैं, जैसे तलाक, भरण-पोषण का खर्च, अलग घर या उसी घर में ठीक से रहने की व्यवस्था, बच्चों का समाधान, क्रूरता (मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, यौनिक आदि) से छुटकारा आदि। इसमें पति या किसी रिश्तेदार को जेल भेजे बिना सभी समस्याओं का समाधान संभव है। मगर कुछ ्त्रिरयों को यह रास्ता पसंद नहीं। ऐसे मामलों में अक्सर लड़का ही झुकता है, ताकि उसका परिवार शांति से रह सके। इसके लिए वह बतौर मुआवजा बड़ी राशि देने को भी तैयार हो जाता है। 
सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला इन तमाम मुश्किलों का समाधान कर सकता है। यह फैसला इस आधार पर किया गया है कि जिस रिश्ते में ऐसी खाई बन गई है, जिसको पाटा न जा सके, उसमें तलाक के लिए छह महीने का इंतजार आखिर क्यों किया जाए? अगर पति-पत्नी में वर्षों का अलगाव है, तो उसका यही अर्थ है कि उनमें जुड़ने की इच्छा मर चुकी है। इसका मकसद यह भी है कि युवावस्था में जुड़े जोड़े अनंतकाल तक अदालतों में दौड़ते-दौड़ते बूढ़े न हो जाएं, बल्कि वे समय से नए जीवन की शुरुआत कर सकें। आज स्थिति यह है कि निचली अदालतों से लेकर, उच्च व सर्वोच्च न्यायालयों तक तलाक के मुकदमों की भरमार है। 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ उत्तर प्रदेश के परिवार न्यायालय में 61,000 से अधिक मुकदमे लंबित थे। भले ही, अपने देश में तलाक की दर दुनिया में सबसे कम 1.1 प्रतिशत है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि पिछले 20 वर्षों में तलाकशुदा लोगों की संख्या दोगुनी हुई है, जिसका अर्थ है कि भारत में रिश्तों के टूटने की दर बढ़ने लगी है।
जब पति-पत्नी में संबंध विच्छेद ही एकमात्र रास्ता हो, तो यह प्रक्रिया जितनी सरल हो, उतना अच्छा। इसके लिए संसद को आगे आना होगा। जैसे, ‘इरिट्रीवबल ब्रेकडाउन ऑफ मैरिज’ का जिक्र कानून में नहीं है, जबकि न्यायालय करीब एक दशक से इस आधार पर तलाक दे रहा है। ऐसा नहीं है कि इस फैसले के बाद तलाक के मुकदमे कम हो जाएंगे, इसकी संख्या बढ़ भी सकती है, पर त्वरित न्याय की दिशा में इसका लाभ मिलेगा। इसी तरह, तलाक, मुआवजा, बच्चों का निर्णय, घरेलू हिंसा का समाधान आदि एक ही फोरम पर हो, तो कहीं अच्छा होगा। उम्मीद है, संसद ऐसे मामलों में पर्याप्त संजीदगी दिखाएगी।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)  

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