फोटो गैलरी

अगला लेख

अगली खबर पढ़ने के लिए यहाँ टैप करें

हिंदी न्यूज़ ओपिनियन नजरियातुलसीदास की ‘ताड़ना’ से फिर हुई शिकायत के अर्थ 

तुलसीदास की ‘ताड़ना’ से फिर हुई शिकायत के अर्थ 

मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम आदि देशों के लिए जब भारतीय श्रमिक यहां से ले जाए जा रहे थे, तब वे अपने साथ गंगाजल और श्रीरामचरितमानस  का गुटका ले गए थे। वही मानस और गंगाजल उनकी संस्कृति की सुरक्षा का पाथेय...

तुलसीदास की ‘ताड़ना’ से फिर हुई शिकायत के अर्थ 
Pankaj Tomarनीरजा माधव, साहित्यकारTue, 31 Jan 2023 10:46 PM
ऐप पर पढ़ें

मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम आदि देशों के लिए जब भारतीय श्रमिक यहां से ले जाए जा रहे थे, तब वे अपने साथ गंगाजल और श्रीरामचरितमानस  का गुटका ले गए थे। वही मानस और गंगाजल उनकी संस्कृति की सुरक्षा का पाथेय भी बना। मानस के रचयिता तुलसीदास ने अपने नाम से कोई पीठ, पंथ या संप्रदाय नहीं चलाया, जिसका कोई उत्तराधिकारी बनता, लेकिन मानस के माध्यम से हर भारतीय मन तुलसी का उत्तराधिकारी मानने में अपने को धन्य समझता है। आज स्थिति यह है कि हर आस्तिक के घर में वेद पुराण के ग्रंथ मिलें, न मिलें, पर श्रीरामचरितमानस की एक प्रति अवश्य मिल जाएगी। उसी मानस पर समय-समय पर हमले बहुत चौंकाते हैं। 
वैसे इस गं्रथ पर फिर से कीचड़ उछालने और इसे भेदभाव वाला ग्रंथ प्रमाणित करने की कोशिश की गई, तो आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि समय-समय पर ऐसा कुचक्र रचा जाता रहा है। कोई तुलसी को सांप्रदायिक घोषित करता है, तो कोई उन्हें स्त्री व शूद्र विरोधी बताता है। बताते हुए उस पंक्ति को उद्धृत करना नहीं भूलता, ढोल, गंवार, शुद्र, पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी। यह संयोग की बात है कि मेरा नाता अवध क्षेत्र से भी है। घर में अवधी का प्रयोग बहुधा होता है। बड़े बुजुर्ग जब कभी घर से बाहर जाते हैं, तो सहेजना नहीं भूलते कि ‘बाल-बच्चन का ताड़़त रहिहो।’ यानी सीधा-सा उसका भावार्थ है कि बच्चों का विशेष ध्यान रखना। अपने पितृ क्षेत्र में लोगों के मन की बात ताड़ लेने वालों को देखा- सुना है, इसलिए तुलसी की ताड़ना की अनर्थकारी व्याख्या करने वालों का इरादा ताड़ने मेें समय नहीं लगा। 
हमारे देश की एक प्रचलित कहावत है, कोस-कोस पर पानी बदले, पांच कोस पर बानी। इसलिए अवध क्षेत्र से ताड़ना (देखभाल) जौनपुर और काशी आते-आते ताड़ लेना (समझ जाना) हो गया, तो आश्चर्य नहीं। आश्चर्य उन पर भी नहीं है, जिनके पास पहुंचते-पहुंचते ताड़ना प्रताड़ना बन जाती है और दुर्योग से वे तुलसी को स्त्री विरोधी या दलित विरोधी बना बैठे हैं। नाना प्रकार के विरोधियों, असंतों की भी वंदना करने वाले तुलसीदास ढोल गंवार और पशु को भी विरोधी बना लेंगे, यह बात समझ में नहीं आती। समाज में विभाजन प्रिय लोगों ने शूद्र शब्द के संदर्भ में तुलसीदास की पंक्तियों को जितना उछाला है, उतना अन्य किसी ने नहीं। स्वयं ्त्रिरयों ने भी इस पर इतना हो-हल्ला नहीं मचाया। जबकि बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही ्त्रिरयां अपने अधिकार व अस्मिता के लिए संघर्षशील हो चुकी थीं। शायद उन्हें इन शब्दों के अर्थ गांभीर्य का बोध रहा होगा।
श्रीरामचरितमानस अवधी में लिखा गया महाकाव्य है, जो आज राष्ट्र की सीमाएं लांघकर वैश्विक स्तर का ग्रंथ बन चुका है। उसी ग्रंथ को कुछ उच्छेदवादी मानसिकता के लोगों ने समाज और राष्ट्र में अशांति तथा अस्थिरता पैदा करने के लिए फिर से अपना हथियार बनाया और कहा कि तुलसीदास जातिवादी थे, समाज में इस ग्रंथ के माध्यम से उन्होंने भेदभाव पैदा किया। इसलिए इन पंक्तियों को उनके इस ग्रंथ से निकाल दिया जाना चाहिए। वैसे, यह पूछा जाना चाहिए कि आखिर किस जाति की कमियों पर तुलसीदास ने प्रहार नहीं किया। क्या ब्राह्मणों, पंडितों के खिलाफ जो पंक्तियां हैं, उन्हें भी हटा देना चाहिए?
ध्यान रहे, एक ऐसे कालखंड में तुलसी का आविर्भाव होता है, जब भारत की सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियां विषम थीं। सनातन धर्म के आडंबरों पर जमकर प्रहार हो रहे थे। ऐसे में, तुलसीदास अपने श्रीरामचरितमानस के माध्यम से एक अभेद्य सांस्कृतिक दुर्ग का निर्माण कर सनातन की रक्षा करते हैं। राम जैसा अतुलनीय चरित्र उठाते हैं व जीवन के किसी पक्ष की उपेक्षा नहीं करते। तुलसीदास ने रावण को भी खलनायक की तरह नहीं प्रस्तुत किया है। रावण मनुष्य के ही भीतरी स्वभाव का दूसरा पक्ष है। वह सीता हरण करके राम को युद्ध के लिए उकसाता है और इस प्रकार लंका में उथल-पुथल का कारण बनता है। अंत तक शांति व समझौते के लिए प्रयासरत राम सामंजस्यवादी हैं, जबकि रावण उथल-पुथल-वादी है। परिवार, समाज को अपने ग्रंथों, पौराणिक चरित्रों से सीखना चाहिए। व्यापकता में देखें, तो तुलसीदास का  योगदान लोगों को जोड़ने में है, तोड़ने में कतई नहीं। 
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)