कैसे लगेगी शोध के गिरते स्तर पर लगाम
हाल ही में केंद्रीय विश्वविद्यालय केरल ने एक परिपत्र जारी कर कहा कि पीएचडी स्तर का शोध ‘राष्ट्रीय प्राथमिकताओं’ के अनुरूप होना चाहिए, तो इस पर खासा हंगामा खड़ा हो गया। इसके पीछे सरकार की...
हाल ही में केंद्रीय विश्वविद्यालय केरल ने एक परिपत्र जारी कर कहा कि पीएचडी स्तर का शोध ‘राष्ट्रीय प्राथमिकताओं’ के अनुरूप होना चाहिए, तो इस पर खासा हंगामा खड़ा हो गया। इसके पीछे सरकार की नीयत को लेकर सवाल खड़े किए जाने लगे। हालांकि मानव संसाधन मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि उसने ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया है, लेकिन इसका ज्यादा असर नहीं हुआ। चुनाव के समय ऐसी बातों का बतंगड़ बनना ही था, इसलिए वह बन गया। इस परिपत्र की आलोचना का मुख्य तर्क यह है कि यह बुद्धिजीवी-विरोधी और स्वतंत्र सोच के खिलाफ है। यह भी कहा जा रहा है कि इसके पीछे का मकसद राजनीतिक है, यह विश्वविद्यालयों के भगवाकरण की कोशिश है और भारत की ज्ञान-व्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाने वाला है। साथ ही यह शोध की निगरानी करना और विचारों को थोपने का काम है। यह भी कहा गया कि यह आलोचनात्मक सोच के खिलाफ है और विचार-भिन्नता खत्म करने वाला है। दूसरे शब्दों में, यह राष्ट्रीय हितों के पूरी तरह खिलाफ है।
इस तरह की आलोचनाओं में भले ही अतिशयोक्ति हो, भले ही उनकी वजह डर और शक हो, लेकिन उन्हें पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता। खासतौर पर तब, जब मामला अध्ययन और आजादी का हो। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में, जहां सरकार अपने बहुमूल्य संसाधन शिक्षा पर खर्च करती हो, वहां क्या वह कुछ बहुत जरूरी पाबंदियां भी नहीं लगा सकती? हमारे विश्वविद्यालयों में जिस तरह का शोध हो रहा है, क्या सरकार को उसे असहाय होकर देखते रहना चाहिए?
शैक्षणिक स्वतंत्रता का एक बहुत बड़ा मूल्य होना चाहिए और इसकी हर तरह से रक्षा भी जरूरी है, लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि पूरी व्यवस्था की जिम्मेदारी शून्य कर दी जाए? यही वह समय है, जब हमें यह देखना चाहिए कि देश में हो रहे शोध की गुणवत्ता कैसी है। वह शोध चाहे मानविकी का हो, सामाजिक विज्ञान का हो, विज्ञान का हो, तकनीक का, इंजीनियरिंग का या फिर गणित का। दुनिया भर की प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में देश के कितने शोध-पत्र साल भर में प्रकाशित होते हैं? यह समय है, जब इन संस्थानों से जुड़े विद्वानों को सरकार पर आरोप लगाने के साथ ही अपने गिरेबान में भी झांकना चाहिए।
इसके पीछे राजनीतिक मकसद देखने के आरोप को समझा जा सकता है। कोई भी निरपेक्ष व्यक्ति यह आसानी से देख सकता है कि देश के सामाजिक विज्ञान संस्थानों में वामपंथी और दक्षिणपंथी विद्वान भरे पड़े हैं, खासकर दिल्ली और कोलकाता में। हमारा संविधान विरोधियों को भी अपने पांव जमाने की जमीन देता है। विरोधी के नजरिए का लगातार विरोध होना चाहिए, लेकिन उसे बर्दाश्त भी किया जाना चाहिए। अगर व्यवस्था में खुलापन हो, पारदर्शिता हो, उस तक सबकी पहुंच हो, तो न सरकार इसमें अपना एजेंडा डाल पाएगी और न ही शोध की पहरेदारी हो सकेगी। इसके लिए सिविल सोसाइटी को भी लगातार सतर्क रहना होगा। क्या सरकार ने ऐसा विश्वास जगाने के लिए कुछ किया है?
भारतीय सामाजिक विज्ञान शोध परिषद् ने प्रभावकारी शोध नीति को लागू करने के लिए 11 क्षेत्रों का चयन किया है। ये क्षेत्र राज्य, लोकतंत्र और विकास से लेकर कारोबार और आर्थिक नीति से जुड़े हैं। केंद्र, राज्यों और निजी संस्थानों ने मिलकर इन क्षेत्रों का चयन पारदर्शी तरीके से किया है। क्या इसे शोध की पहरेदारी या आजादी में बाधा माना जा सकता है? इसी के साथ शोधगंगा की पहल भी जुड़ी हुई है, जिसमें सभी पीएचडी थीसिस की इलेक्ट्रॉनिक कॉपी बनाकर डालनी होती है। इससे शोध का एक बहुत बड़ा डाटाबैंक तैयार हो गया है, जहां शोध की गुणवत्ता देखी जा सकती है। इसी तरह भारतीय विज्ञान संस्थान और सभी आईआईटी ने केंद्रीय मंत्रालय के साथ मिलकर कुछ ऐसे क्षेत्रों का चुनाव किया है, जिनसे समेकित विकास हो सके और देश को आत्मनिर्भर बनाया जा सके।
क्या हम उस व्यवसाय को नजरंदाज कर सकते हैं, जो देश भर में बड़े पैमाने पर थीसिस उत्पादन के लिए चल रहा है? सरकार इसे समझ रही है और बलराम समिति ने इसके लिए पीएचडी के नियमों में बदलाव की सिफारिश भी की है। शोध का उद्धार तभी हो सकेगा, जब बुद्धिजीवी खुले दिमाग से इस काम में हाथ बंटाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)