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कृत्रिम मांसाहार की ओर बढ़ती दुनिया और भारत

छह साल पहले प्रयोगशाला में विकसित मांस से बने पहले हैमबर्गर की कीमत करीब 3,25,000 डॉलर थी। गूगल के एक सह-संस्थापक सेर्गे ब्रिन की ओर से पैसा आया था। मास्ट्रिच यूनिवर्सिटी में मार्क पोस्ट की...

कृत्रिम मांसाहार की ओर बढ़ती दुनिया और भारत
नितिन पई, निदेशक, तक्षशिला संस्थानMon, 08 Jul 2019 10:06 PM
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छह साल पहले प्रयोगशाला में विकसित मांस से बने पहले हैमबर्गर की कीमत करीब 3,25,000 डॉलर थी। गूगल के एक सह-संस्थापक सेर्गे ब्रिन की ओर से पैसा आया था। मास्ट्रिच यूनिवर्सिटी में मार्क पोस्ट की प्रयोगशाला में यह मांस विकसित किया गया। एक ब्रिटिश रसोइए ने बर्गर पकाया और इसे दो यूरोपीय खाद्य आलोचकों ने चखा। इनमें से एक के अनुसार, ‘इसमें कुछ तेज स्वाद है। यह मांस के करीब है, लेकिन यह उतना रसीला नहीं है। सुसंगति सही है, लेकिन मुझे नमक और मिर्च का अभाव लगता है।’

आज इसे प्रयोगशाला में विकसित मीट नहीं, बल्कि ‘कल्चर्ड मीट’ या कृत्रिम मांस कहा जा रहा है। आज ऐसे एक किलोग्राम मीट की कीमत करीब 25 डॉलर है और इसकी कीमत अगले साल 10 डॉलर से भी कम हो जाने का अनुमान है। इस क्षेत्र को ‘सेल्युलर एग्रीकल्चर’ कहा जाता है। कृत्रिम मांस प्रोटीन के अलावा यह क्षेत्र सिंथेटिक बायोलॉजी के इस्तेमाल से दूध, अंडे, कॉफी, चमड़े और सिल्क भी बना रहा है। इनमें से कुछ उत्पाद सुपर मार्केट में बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। इस क्षेत्र में ज्यादातर नवाचार निजी रूप से पोषित स्टार्टअप के जरिए अमेरिका, इजरायल व यूरोप में हो रहे हैं। अगले दशक में मनुष्य जाति ऐसे खाद्य उत्पादों की गवाह बनेगी, जिनका सही वर्गीकरण करना वह अभी नहीं जानती है। अगर ऐसा होता है, और पूरी संभावना है कि ऐसा होगा, तो इसका हमारी सेहत, पर्यावरण, राजनीति और शायद धार्मिक आस्था पर भी गहरा असर पड़ेगा। इसके अलावा तकनीकी रूप से भी बड़ी मात्रा में कृत्रिम मांस उत्पादन बहुत चुनौतीपूर्ण है।

कृत्रिम मीट के प्रचारक यह दर्शाते हैं कि एक किलोग्राम सामान्य मीट के उत्पादन में कितनी भूमि, अन्न, जल का इस्तेमाल होता और कितना कार्बन क्षरण होता है। इनका दावा है कि सेल्युलर एग्रीकल्चर में इन संसाधन के उपयोग में 70 प्रतिशत तक कमी आएगी। खैर, अभी सेल्युलर एग्रीकल्चर को अपनी क्षमता सिद्ध करनी होगी। अगर इसके तहत भारी मात्रा में उत्पादन होने लगा, तब विश्व में खाद्य उत्पादन को टिकाऊ या सतत बनाने में मदद मिलेगी। मात्र इसी कारण से भारत इस क्षेत्र को नजरंदाज नहीं कर सकता। उसे अपनी आबादी के लिए उच्च गुणवत्ता के किफायती प्रोटीन की जरूरत है। जैसे, स्कूलों में दोपहर भोजन में अंडा देने को परंपरावादी लोग आपत्तिजनक मानते हैं, लेकिन तब क्या होगा, जब बच्चों को सामान्य अंडे की जगह उसका कृत्रिम प्रोटीन दिया जाएगा? अगर ऐसे उत्पादन संभव हैं, जिन्हें न तो पूरी तरह से ‘वेज’ कहा जा सकता है और न ‘नॉन-वेज’, तो भारतीय समाज में एक नए विवाद का जन्म होगा और यह पुराने विवादों को सुलझाने का मौका भी।

फैक्टरी में विकसित ऐसा मांस हमारे लिए सुरक्षित है या नहीं, इस पर भी विवाद खड़ा होगा। एक ओर, यह कृत्रिम खाद्य एक हद तक उन सीमांत मांसाहारियों को नैतिक दबाव से मुक्त भी करेगा, जो पशुओं को नुकसान पहुंचाने के पक्षधर नहीं हैं। दूसरी ओर, यह बड़ी संख्या में लोगों तक उच्च गुणवत्ता के पोषक प्रोटीन उपलब्ध कराएगा, ताकि उन्हें बेहतर स्वास्थ्य प्राप्त हो। भारत में इसे ‘अहिंसा मीट’ कहा जा रहा है और भारत सरकार ने हैदराबाद स्थित ‘सेंटर फॉर सेल्युलर ऐंड मोलेक्युलर बायोलॉजी’ को यह जिम्मेदारी दी है कि वह पांच वर्ष में इसका उत्पादन व्यावसायिक स्तर पर कर२ि दिखाए। हालांकि इसके लिए मात्र 405 करोड़ रुपये बजटीय प्रावधान किया गया है। महाराष्ट्र सरकार ने भी सेल्युलर एग्रीकल्चर क्षेत्र में शोध और विकास के लिए इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी और गुड फूड इंस्टीट्यूट की सहभागिता को मंजूरी दी है। वर्ष 2018 के आखिर में दिल्ली की एक स्टार्टअप ने बड़ी महत्वाकांक्षा के साथ इस क्षेत्र में कदम रखा है, 18 महीने के अंदर अपने उत्पाद को बाजार में लाना उसका लक्ष्य है।

हालिया मार्केट रिसर्च से पता चलता है कि अमेरिका की तुलना में भारतीय और चीनी अहिंसा मीट को ज्यादा आसानी से स्वीकार करेंगे। सेल्युलर एग्रीकल्चर में भारत के मुख्य भूमिका में आने के अवसर हैं। लेकिन इसके लिए ज्यादा सार्वजनिक और निजी निवेश की आवश्यकता पड़ेगी। सरकार को विज्ञान और उद्योग की ओर सकारात्मक दृष्टि रखनी चाहिए। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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