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एक संकट टालने की कोशिश में बढ़े दूसरे की ओर

जब नागरिकता संशोधन विधेयक को संसद में पेश करने की तैयारी तेज हो गई है, तब राष्ट्रवादी बयानबाजी का दौर चल पड़ा है। दरअसल, नई दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र के सीईओ ने इस सप्ताह के शुरू में...

एक संकट टालने की कोशिश में बढ़े दूसरे की ओर
सुदीप चक्रवर्ती, वरिष्ठ पत्रकारThu, 05 Dec 2019 11:42 PM
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जब नागरिकता संशोधन विधेयक को संसद में पेश करने की तैयारी तेज हो गई है, तब राष्ट्रवादी बयानबाजी का दौर चल पड़ा है। दरअसल, नई दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र के सीईओ ने इस सप्ताह के शुरू में एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित अपनी टिप्पणी में अजीब वाक्यांश का इस्तेमाल किया था। उन्होंने पूर्वोत्तर भारत में नागरिकता संशोधन विधेयक संबंधी चिंताओं पर गौर नहीं किया था, जबकि मणिपुर, नगालैंड, मिजोरम और मेघालय ने प्रस्तावित विधेयक का लगातार विरोध किया है। विश्व संवाद केेंद्र दूसरे कुछ संगठनों की तरह ही अपने राष्ट्रवादी एजेंडे को एक राष्ट्रीय एजेंडे के रूप में आगे बढ़ाने की कोशिश में है। इस वर्ष की शुरुआत में जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने इस प्रस्तावित विधेयक को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी, तब इस विधेयक को लेकर चिंताएं बढ़ गई थीं। इस विधेयक को राह देने से पूर्वोत्तर भारत में संतुलन बुरी तरह बिगड़ सकता है। आगे उस भाजपा की छवि पर भी असर पड़ सकता है, जो सबको साथ लेकर चलने और सबके विकास की बात करती रही है।

नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 इसी साल जनवरी में लोकसभा में पारित हो गया था। नागरिकता अधिनियम 1955 को संशोधित करने जा रहे इस प्रस्तावित विधेयक के अनुसार, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों, जैसे हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों, ईसाइयों को अवैध शरणार्थी के रूप में नहीं देखा जाएगा... और ऐसे लोग नागरिकता के लिए आवेदन करने योग्य होंगे। भारतीय नागरिकता के लिए इन समुदायों के लोगों को भारत में कम से कम 11 साल रहने की बजाय कम से कम छह साल रहने पर भी नागरिकता के आवेदन के योग्य माना जाएगा। जनवरी 2019 में पारित विधेयक विगत लोकसभा के कार्यकाल के खत्म होने के साथ ही कालातीत हो गया था, तब विधेयक को राज्यसभा में पेश नहीं किया गया था। राज्यसभा में इसलिए पेश नहीं किया गया, क्योंकि इसकी खूब आलोचना हुई थी और उच्च सदन का अंकगणित भी सरकार के अनुकूल नहीं था। मई 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में एनडीए की भारी जीत और राज्यसभा में बढ़ी हुई ताकत के कारण सरकार इस विधेयक को फिर लाने को प्रेरित हुई।

कोई आश्चर्य नहीं, धर्म विशेष के लोगों को नागरिकता संशोधन विधेयक के दायरे से बाहर रखकर एनडीए की प्रमुख पार्टी भाजपा अपनी साख मजबूत करने की कोशिश करेगी। हालांकि इससे धर्म के आधार पर असमानता का सांविधानिक विवाद पैदा होता है। वैसे पूर्वोत्तर भारत में विस्थापन की समस्या कई दशकों से रही है। नागरिकता संशोधन विधेयक भाजपा, संघ और एनडीए के लोगों द्वारा पूर्वोत्तर में पहले दिए गए आश्वासन के विपरीत है, स्थानीय लोगों व जनजातियों को यही कहा गया कि उनका अपनी भूमि पर पूरा अधिकार है।

असम में, जहां भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार है, वहां बहुत चाव से नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) की कवायद चली थी। ऐसा अनुमान है, जो लोग वहां एनआरसी के दांव में फंस गए हैं, उन्हें नागरिकता संशोधन विधेयक के जरिए निकाला या बचाया जाएगा। अभी असम में 19 लाख हिंदुओं की नागरिकता खतरे में है। ऐसे लोगों को जनवरी 2020 तक ट्रिब्यूनल के सामने गुहार लगाकर खुद को भारत में सुरक्षित करना होगा। मानवीय समस्याओं के बढ़ने का खतरा मंडरा रहा है। राज्य में पिछले सप्ताह ही यह बात सामने आई है कि शरणार्थियों या घुसपैठियों के हिरासत केंद्रों पर बीमारियों की वजह से कई मौतें हुई हैं। असम में ऐसे छह केंद्र हैं। असम सरकार ने एनआरसी के तहत हिरासत में रखे गए लोगों के लिए और केंद्र बनाने की मांग की है। यह समस्या बढ़ती जाएगी, क्योंकि सीमा पार के देश (बांग्लादेश) की ओर से अभी कोई संकेत नहीं है। जो लोग एनआरसी जांच में नाकाम हो जाएंगे, क्या वह उन्हें कभी वापस लेगा?

सिर्फ बयानबाजी से संदेह दूर नहीं हुआ करते। बहुसंख्यकों को इस बिंदु पर गौर करना चाहिए। वरना जैसा कि असमी विद्वान संजीब बरुआ ने एक बार कहा था, ‘टिकाऊ विकार’ पैदा हो जाएगा। एक ऐसा विकार, जो सरकारी एजेंसियों के आदेश से पैदा होगा। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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