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युवाओं को चिंतन-जीवन सिखाते विवेकानंद 

युवाओं के सही मार्गदर्शन के लिए हर साल स्वामी विवेकानंद की जयंती 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाई जाती है। शिकागो के विश्व महाधर्म सम्मेलन में जब स्वामी विवेकानंद ने भारत का परचम...

युवाओं को चिंतन-जीवन सिखाते विवेकानंद 
निरंकार सिंह , पूर्व सहायक संपादक, हिंदी विश्वकोश Tue, 11 Jan 2022 10:37 PM
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युवाओं के सही मार्गदर्शन के लिए हर साल स्वामी विवेकानंद की जयंती 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाई जाती है। शिकागो के विश्व महाधर्म सम्मेलन में जब स्वामी विवेकानंद ने भारत का परचम फहराया था, तब वह भी युवा ही थे। किसी भी देश का भविष्य उस देश के युवाओं पर निर्भर करता है। देश के विकास में युवाओं का बड़ा योगदान होता है। 
स्वामी विवेकानंद एक ऐसे क्रांतिकारी संन्यासी थे, जिन्होंने अपने उपदेशों और विचारों के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना व स्वाभिमान की भावना उत्पन्न कर भारत राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए सतत संघर्ष की प्रेरणा दी। स्वामी जी के तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजस्वी वाणी में ऐसा विलक्षण आकर्षण था कि साधारण व्यक्ति से लेकर अग्रणी बुद्धिजीवी तक उनके प्रति श्रद्धावनत हो जाते थे। अल्प समय में ही उन्होंने भारतीय संस्कृति की विजय पताका सात समुद्र पार के अनेक देशों में फहराकर अपने राष्ट्र को गौरवान्वित करने में सफलता प्राप्त की थी। अपने अल्प जीवनकाल (1863-1902) केवल 39 वर्ष की आयु में इस विलक्षण ओजस्वी संन्यासी ने जिस प्रकार विश्व व्यापी ख्याति प्राप्त की थी, वह अन्य किसी को प्राप्त नहीं हुई। प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक रोमां रोलां ने उनके विषय में ठीक ही लिखा था, ‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना असंभव है। वह जहां भी पहुंचे, अद्वितीय रहे। हर कोई उनमें अपने नेता, मार्गदर्शक का दर्शन करता था। वह ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी।’
शिकागो में उनके भाषणों पर टिप्पणी करते हुए द न्यूयॉर्क हेराल्ड  ने लिखा था कि धर्मों की पार्लियामेंट में सबसे महान व्यक्ति विवेकानंद हैं। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म-प्रचारक भेजना कितनी बेवकूफी की बात है।’ शिकागो सम्मेलन से उत्साहित स्वामी जी अमेरिका और इंग्लैंड में तीन साल तक रह गए और इस अवधि में अपने भाषणों, लेखों, अपनी कविताओं, बहसों और वक्तव्यों द्वारा उन्होंने भारतीयता के सार को सारे यूरोप में प्रचारित किया। 
उस दौर में अन्य धर्मों के प्रचारक संसार में हिंदू धर्म की जो निंदा फैला रहे थे, उन सब पर अकेले स्वामी जी ने रोक लगा दी और जब भारतवासियों ने यह सुना कि सारा पश्चिम स्वामी जी के मुख से धर्म का आख्यान सुनकर गदगद हो रहा है, तब भारतीय लोग भी धर्म और संस्कृति के गौरव का अनुभव कुछ तीव्रता से करने लगे। अंग्रेजी पढ़कर बहके हिंदू बुद्धिवादियों ने जब यह देखा कि स्वयं यूरोप-अमेरिका के नर-नारी स्वामी जी के शिष्य बनकर हिंदुत्व की सेवा में लग रहे हैं, तब उनके भीतर भी ग्लानि की भावना जगी। 
गौर करने बात है कि जब स्वामी विवेकानंद का आविर्भाव हुआ, उस समय देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। उन्होंने भारत भ्रमण कर निरंतर देशवासियों को जगाया। समाज-जीवन की कुरीतियों, मानसिक जड़ता और अंधविश्वासों के कुहासे को चीरकर अपने स्वत्व को पहचानने व अपने पूर्वजों की थाती को संभालने का आह्वान किया। भारत माता को देवी मानकर उनके उत्कर्ष के लिए उनकी सेवा में सर्वस्व न्योछावर कर देने की भावना उनकी देन है। चरित्र निर्माण, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का बोध, भारत की आध्यात्मिक चेतना का प्रवाह, जाति और पंथ के भेद से ऊपर उठकर समरसता एवं लोक-कल्याण द्वारा भारत का उत्थान उनका लक्ष्य था। 
एक बार फिर स्वामी विवेकानंद की सिंह-गर्जना भारतीयता से विमुख बंद दिमागों की खिड़की खोले, उनके अंत:करण में छाए वैचारिक विभ्रम के कुहासे को छांट दे, भारत भक्ति से ओत-प्रोत हृदयों में आशा और विश्वास का संचार करे। इसके लिए आवश्यकता है कि स्वामी विवेकानंद के विचार केवल बौद्धिक चिंतन तक न रहें, बल्कि व्यावहारिक धरातल पर भी साकार हों और देश का चित्र बदले। भारत का जो चित्र स्वामी जी की अंतश्चेतना में उभरता था, वह केवल सुखी, समृद्ध, शक्तिशाली भारत का ही नहीं है, बल्कि एक स्वाभिमानी राष्ट्र का भी है। भारत फिर से विश्व गुरु के सिंहासन पर आरूढ़ हो, उसका यह संकल्प तभी पूर्ण होगा, जब हम विवेकानंद के विचार को ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ जिएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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