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हरित विकास की राह में पनबिजली भी रोड़ा

वर्ष 2012 में मैं सिक्किम में स्थानीय समुदायों के जीवन और आजीविका के बारे में चल रहे अध्ययन का हिस्सा था। वहां समुदायों पर राष्ट्रीय थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) की पनबिजली परियोजना के प्रभावों की...

हरित विकास की राह में पनबिजली भी रोड़ा
अंजल प्रकाश, रिसर्च डायरेक्टर, भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसीThu, 11 Feb 2021 11:34 PM
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वर्ष 2012 में मैं सिक्किम में स्थानीय समुदायों के जीवन और आजीविका के बारे में चल रहे अध्ययन का हिस्सा था। वहां समुदायों पर राष्ट्रीय थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) की पनबिजली परियोजना के प्रभावों की जांच की जा रही थी। परियोजना के तहत ही मैंने तीस्ता-वी के डूब क्षेत्र में स्थानीय लोगों से बड़े पैमाने पर चर्चा की थी। वहां चल रही पनबिजली परियोजना बिल्कुल उत्तराखंड की तपोवन विष्णुगड़ ऊर्जा परियोजना जैसी ही थी। नदी की धारा में बनने वाली परियोजनाओं को ऊंचे बांध वाली परियोजनाओं की तुलना में ज्यादा बेहतर हरित विकल्प के रूप में देखा जाता है, क्योंकि नदी की धारा वाली परियोजनाओं में बांध के जरिए धारा को नियंत्रित ढंग से मोड़ा जाता है, ताकि विद्युत बनाया जा सके और फिर जल को नदी में छोड़ा जा सके। जबकि बड़ी पनबिजली परियोजनाओं में ऊंचे बांध बनाकर नदी जल बडे़ पैमाने पर जमा किया जाता है। सिक्किम में स्थानीय लोगों के साथ बैठकों में मैंने चार चीजें सीखीं। पहली, नदी की धार वाली यानी आरओआर परियोजनाएं हरित या पर्यावरण के अनुकूल नहीं हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि नदी जल को बिजली उत्पादन के लिए मोड़ दिया जाता है और इस तरह नदी की पारिस्थितिकी को नष्ट कर दिया जाता है। बांध बनाने के क्रम में विस्फोटों व सुरंग निर्माण से वे झरने सूख जाते हैं, जो पीने और कृषि के लिए जल उपलब्ध कराते हैं।
दूसरी, परियोजना की मंजूरी के लिए उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता। स्थानीय लोगों को पर्यावरण और उनके जीवन पर परियोजना के प्रभाव के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं थी। तीसरी, उन्होंने मुझे हिमालय की संवेदनशीलता के बारे में बताया कि कैसे भूकंप और अन्य जलवायु बदलाव लोगों को प्रभावित करते हैं। उत्तराखंड सहित देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह की घटिया परियोजनाओं को मंजूरी मिली है। और अंत में, परियोजना क्षेत्र में एनटीपीसी ने स्थानीय लोगों के लिए स्कूल, स्वास्थ्य सुविधाएं व सड़क जैसे बुनियादी ढांचा निर्माण के लिए अपनी कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व राशि खर्च की है। लेकिन जैसा कि एक महिला ने मुझसे कहा, ‘ये तो हमारे मूल अधिकार हैं, और इनकी उपलब्धता को किसी भी परियोजना से क्यों जोड़ा जाना चाहिए?’मैंने जो सिक्किम में सीखा था, रविवार को उत्तराखंड में वैसा ही देखा। इसमें कोई संदेह नहीं कि जलवायु परिवर्तन से प्रेरित ग्लेशियर हिमस्खलन (ग्लेशियल अवलांचे) ने बहुत कुछ तबाह कर दिया है। इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की अनेक रिपोर्टें हैं, जो बढ़ते खतरे के प्रति आगाह करती आई हैं। मुझे लगता है कि पनबिजली परियोजनाओं को उनके द्वारा होने लाभ के बरअक्स तौला जाना चाहिए। आईपीसीसी ने मूल्यांकन किया है कि जलवायु संकट ने दुनिया के उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में प्राकृतिक खतरों की आवृत्ति और आकार को बदल दिया है। विश्व स्तर पर कुछ क्षेत्रों में हिमस्खलन में वृद्धि हुई है।
हम मानते हैं कि पनबिजली एक कम उत्सर्जन वाला ऊर्जा स्रोत है, पर डिजाइन के अनुसार, ऐसी परियोजनाएं भी पर्यावरण के नजरिए से वाजिब नहीं हैं। पिछले कुछ दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास के साथ बिजली की मांग बढ़ी है। कोयला अभी भी भारत में ऊर्जा उत्पादन का बड़ा स्रोत है। ऊर्जा के अक्षय स्रोतों को भी बढ़ावा देने की नीतियों पर काम चल रहा है। भारत की अक्षय ऊर्जा क्षमता बहुत अधिक है और इसमें निवेश करके कोयले पर निर्भरता घटाई जा सकती है। हालांकि, यह बदलाव तत्काल नहीं हो सकता, लेकिन होगा जरूर, बशर्ते मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। जैसे हम आज कोयले के बारे में सोचते हैं, वैसे ही हमें पनबिजली के बारे में भी सोचना चाहिए। क्या पर्यावरण अनुकूल विकास संभव है? इसका कोई सीधा जवाब नहीं है। हमें प्रत्येक क्षेत्र में पर्यावरणीय प्रभाव पर बातचीत शुरू करने की जरूरत है। प्रकृति आधारित समाधान, जिसका अर्थ है- सामाजिक-पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए प्रकृति का उपयोग, अगर यह सही रणनीति के साथ आजमाया जाए, तो इससे हरित विकास को बढ़ावा मिल सकता है। इस प्रयास को आत्मनिर्भर भारत निर्माण की पहल से भी जोड़ा जा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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