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Hindi News ओपिनियन नजरियासफाई को रटने का कोई तरीका है ही नहीं

सफाई को रटने का कोई तरीका है ही नहीं

पिछले तीन महीनों में मैंने कुछ स्कूलों, शिक्षक-शिक्षिकाओं, हेड-टीचरों और शिक्षण पद्धतियों के जीवंत उदाहरणों पर आधारित कई छोटी फिल्में देखीं। लगभग सभी फिल्में कुछ ऐसे कार्यों को दिखाने के लिए बनी थीं,...

सफाई को रटने का कोई तरीका है ही नहीं
दिलीप रांजेकर, सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशनSun, 28 Oct 2018 10:50 PM
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पिछले तीन महीनों में मैंने कुछ स्कूलों, शिक्षक-शिक्षिकाओं, हेड-टीचरों और शिक्षण पद्धतियों के जीवंत उदाहरणों पर आधारित कई छोटी फिल्में देखीं। लगभग सभी फिल्में कुछ ऐसे कार्यों को दिखाने के लिए बनी थीं, जिनसे शिक्षा से जुड़े लोगों का बड़ा हिस्सा कुछ सीख सकता था। हालांकि वे फिल्में आमतौर पर ठीकठाक ही थीं, लेकिन जिस तरह के औसत दर्जे के संदेश वे दे रही थीं, उससे निराशा ही हुई। 

एक फिल्म में किसी स्कूल के एक कार्यक्रम को दिखाया गया था, जिसमें अभिभावक, समुदाय के सदस्य और कलेक्टर जैसे सरकारी अधिकारी मौजूद थे। फिल्म में पहली व दूसरी कक्षा  के बच्चों को दिखाया गया था, जो एक देशभक्ति गीत पर नृत्य प्रस्तुत कर रहे थे। जब कुछ बच्चों के स्टेप में गलती हो गई, तो उनके हावभाव से शिक्षकों का आतंक साफ जाहिर हो रहा था। एक अन्य दृश्य में शिक्षक एक नर्सरी गीत गा रहे थे (बा बा ब्लैक शीप और  ट्विंकल ट्विंकल लिटल स्टार)। इसमें कुछ बच्चे बाकी समूह से अलग ही स्टेप ले रहे थे। शिक्षकों को यह बर्दाश्त नहीं था, क्योंकि उन्होंने जो सिखाया था, यह उसके खिलाफ था। बच्चों के पास इन गीतों को अपने ढंग से समझने का विकल्प था ही नहीं, वे बस वही कर सकते थे, जिसकी हिदायत उनको दी गई थी। मेरे दिमाग में आया कि यह आमतौर पर की जाने वाली रट्टेबाजी से किस तरह अलग है? फिर स्थानीय भाषा के गीत खोजने की बजाय हम उसी घिसे-पिटे ‘ट्विंकल ट्विंकल’ पर क्यों अटके रहें? क्या शिक्षक कुछ ऐसा नहीं कर सकते थे जिससे बच्चों को सोचने और कुछ और ज्यादा रचनात्मक करने का मौका मिल जाता? अपने लंबे भाषण में जिला कलेक्टर ने इस बात के लिए स्कूल और शिक्षकों की प्रशंसा की कि उन्होंने बच्चों को अच्छी तरह से अनुशासित कर दिया है। हालांकि वह सहृदय और अच्छी गुणवत्ता की तालीम के पक्षधर थे, मगर उनके भाषण से अनुशासन, रट्टेबाजी जैसे ख्यालों की ही बू आ रही थी।

मैं ऐसे ढेरों स्कूलों में जाता हूं, जिनमें अच्छे कामकाज का प्रदर्शन करने की कोशिश की जाती है। इन स्कूलों में खूब अनुशासन लागू किया जाता है, जो बच्चों के लिए बड़ा डरावना होता है। स्कूलों को साफ रखने के लिए अतिरिक्त खर्च किया जाता है या फिर विद्यार्थियों से ही सफाई कराई जाती है। साफ-सफाई की आदतों के महत्व को समझाने पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। मुझे यकीन है कि यदि बच्चों को यह बात समझ में आ जाए कि अपने आसपास साफ-सफाई रखना जरूरी क्यों है, तो वे गंदगी नहीं करेंगे। सफाई को रट लेने का कोई तरीका है ही नहीं। अंतिम नतीजे का अपना महत्व होता है, लेकिन इस नतीजे तक पहुंचने की पद्धति शैक्षणिक प्रक्रिया की बुनियाद में है। यही कारण है कि जब एक स्कूल के प्रधानाचार्य ने समझाया कि किस तरह स्कूल में हर बच्चे को बुनियादी साफ-सफाई और शौचालय के उपयोग की स्वस्थ आदतों की शिक्षा दी जाती है, जिसके चलते वे बिना अतिरिक्त जोर डाले ही शौचालय को साफ रखते हैं, तो मुझे यह एकदम विलक्षण बात लगी। शौचालय का सही तरीके से इस्तेमाल और उसे साफ रखना इन बच्चों की आदत में शुमार हो गया है और उनके साथ ये आदतें घर भी पहुंच जाती हैं।

पानी के नल को ढंग से बंद करना, रिसावों का समय पर निवारण करना, यह समझना कि पानी की एक बूंद भी बरबाद करने का दुनिया पर क्या असर पड़ता है, स्कूल प्रांगण में उपयुक्त कूड़ेदान रखना, मध्याह्न भोजन को जहां-तहां न बिखेरने जैसी साधारण सी आदतें बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में बड़ी भूमिका निभाती हैं। और अगर बच्चों को यह भी समझाया जाए कि ऐसा करना जरूरी क्यों है तो इसका असर और भी बेहतर होगा। यह सब सुनने में बड़ा गैर-शैक्षणिक लगता है, पर असल में इसका शैक्षणिक प्रक्रिया में गहरा महत्व है। जिस क्षण हम बच्चों को ‘क्या करना है’ यह बताना बंद करके उनको समझाना शुरू कर देंगे, उन्हें अपनी सहज अवस्था में रहने देंगे और वे जो कुछ भी सीखते हैं, उन चीजों की उनकी अलग-अलग व्याख्याएं स्वीकार करेंगे, उसी दिन से वास्तविक शिक्षा की शुरुआत होगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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