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कटते और घटते जंगलों की भटकी हुई नीतियां

वन की परिभाषा हमें बताती है कि जहां कम से कम एक हेक्टेयर में वृक्ष एक साथ हों और उसमें लगभग 10 फीसदी से ज्यादा प्रति वृक्ष की छाया बनी रहती हो, तो उसे ही जंगल का दर्जा प्राप्त होता है। फोरेस्ट सर्वे...

अनिल प्रकाश जोशी, पर्यावरणविद् Tue, 20 March 2018 10:12 PM
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वन की परिभाषा हमें बताती है कि जहां कम से कम एक हेक्टेयर में वृक्ष एक साथ हों और उसमें लगभग 10 फीसदी से ज्यादा प्रति वृक्ष की छाया बनी रहती हो, तो उसे ही जंगल का दर्जा प्राप्त होता है। फोरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की ताजा रपट के अनुसार, देश के पूरे भूभाग में लगभग 21.54 प्रतिशत हिस्से ही वन हैं और ये वर्ष 2015 की तुलना में 6,770 वर्ग किलोमीटर ज्यादा हैं। इस वन क्षेत्र में 2.99 फीसदी घने, 9.38 फीसदी सामान्य रूप से घने व करीब 9़18 फीसदी खुले वन हैं। उत्तर पश्चिम के पहाड़ी क्षेत्रों में तो 759 वर्ग किलोमीटर वन बढ़े हैं, मगर उत्तर पूर्वी क्षेत्र में 630 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। इस वन क्षेत्र को पर्यावरण की दृष्टि से करीब 7,082 मीट्रिक टन कार्बन स्टॉक के रूप में भी देखा जा सकता है। हालांकि जिस गति से हमने औद्योगिक दौड़ लगा रखी है, उसके सापेक्ष इसे दमदार नहीं कहा जा सकता। फिर वनों का मतलब मात्र वृक्ष नहीं होता, प्रकृति ने स्थान व पारिस्थितिकी विशेष के लिए प्रजातियां तय कर रखी है। ये प्रजातियां प्रकृति व पृथ्वी के लंबे समन्वय के बाद तय हुई है। किसी भी जगह कोई भी वृक्ष लगाकर वनों की वृद्धि का आंकड़ा उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकता।

उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश व जम्मू-कश्मीर में नए आंकड़ों के अनुसार, जंगल जमकर खड़े हैं, पर इनकी विवेचना यह नहीं कह सकती, क्योंकि इनमें सबसे बड़ा प्रतिशत चीड़ के वनों का है। ये न तो स्थानीय हैं और न ही हमारी पारिस्थितिकी के साथ मेल-जोल रखते हैं। इन्हीं राज्यों के निचले इलाकों में 80 के दशक में वन विभागों ने सागौन को जगह दे दी। यह प्रजाति केरल की है, जहां इसकी परिस्थितियां वहां की मिट्टी व जलवायु से पूरी तरह मेल खाती है।

असल में, हमारे विकास की पूरी रणनीति में वनों का सीधा कोई स्थान नहीं। हमारी समझ में यह नहीं आता है कि वनों की एक केंद्रीय भूमिका है, जो मिट्टी-हवा-पानी से भी जुड़ी हैं। इनसे ही जलवायु तय होती है। वन को विकास का हिस्सा नहीं समझा जाता है और इसके लिए जिस गति से उनका सफाया होता है, उसकी भरपाई पर गंभीरता नहीं दिखती। वर्ष 2015 के ही आंकड़ों को देखिए। लोकसभा में रखी रपट के अनुसार, ज्यादातर राज्यों की वन भूमि को विकास-कार्यों के लिए खूब स्थानांतरित किया गया है। इसमें पंजाब सबसे आगे रहा, जिसने आज तक लगभग 44.55 फीसदी भूमि अन्य कार्यों में झोंक दी। बाकी राज्यों के आकड़े भी लगभग ऐसे ही हैं। एक अध्ययन के अनुसार, हमने पिछले आठ दशक में देश के 28 फीसदी वनों को खोया है।

पर्यावरण विभाग के अनुसार, सबसे ज्यादा वन क्षेत्र उत्तराखंड में परिवर्तित किए गए। यहां वर्ष 1980 से 44,868 हेक्टेयर वन भूमि विकास के नाम पर झोंक दी गई। इसमें 5,500 हेक्टेयर हाइड्रो प्रोजेक्ट व 3,100 हेक्टेयर ट्रांसमिशन लाइन के लिए हाथ से निकल गई। एक अंतरराष्ट्रीय साइंस जनरल के अनुसार, उत्तर पश्चिमी हिमालय में 1930 से 2013 के बीच वनों का क्षेत्रफल 52,166 वर्ग किलोमीटर से घटकर 43,982 वर्ग किलोमीटर पहुंच गया। इसी तरह, पूर्वी हिमालय में 68,815 वर्ग किलोमीटर से घटकर यह 62,700 वर्ग किलोमीटर रह गया। बड़ी गिरावट गंगा तट के वन क्षेत्रों में आई, जहां वन भूमि 29,458 वर्ग किलोमीटर से घटकर 15,870 वर्ग किलोमीटर तक पहुंच गई। यह कहानी अपने देश की ही नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया की है। विश्व में कहीं भी वनों के प्रति गंभीर चिंता नहीं दिखती। दुनिया में हर सेकंड में आधा हेक्टेयर वन कटते हैं। अगर हालात ऐसे ही बने रहे, तो अगले 100 वर्षों में वर्षा वन शायद रहें ही नहीं।

ये सब आंकड़े वनों के बिगड़ते हालातों का ब्योरा ही नहीं देते, बल्कि इससे जुड़े कई बड़े तथ्य भी हैं। वन जल, मिट्टी व हवा के केंद्र होते हैं। आज अगर ये किसी भी बड़े संकट से गुजर रहे हैं, तो यह मान लीजिए कि ये वनों के तेजी से खोने के ही कारण हैं। जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिंग के बड़े मुद्दे जहां एक तरफ विकास के कारण खड़े हुए, वहां ये वनों के अंधाधुंध दोहन के परिणाम भी हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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