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असंतोष के सुख का दर्शन

इंसान एक स्थायी असंतुष्ट है। दुकान पर चाय सुड़कते उन्हें सबसे शिकायत है, सूरज आदमी सा अवसरवादी है। मौसम के साथ बदलता है, जाड़े में पीठ दिखलाकर, गरमी में भट्ठी सा तपाकर। बादल कौन कम है? कभी फेसबुक के...

असंतोष के सुख का दर्शन
गोपाल चतुर्वेदी Sun, 16 Jul 2017 10:52 PM
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इंसान एक स्थायी असंतुष्ट है। दुकान पर चाय सुड़कते उन्हें सबसे शिकायत है, सूरज आदमी सा अवसरवादी है। मौसम के साथ बदलता है, जाड़े में पीठ दिखलाकर, गरमी में भट्ठी सा तपाकर। बादल कौन कम है? कभी फेसबुक के समान चुराए चुटकुलों पर ‘लाइक’ सा बरसता है, तो कभी काम पड़ने पर वहीं के दोस्तों सा अंतध्र्यान हो जाता है। चायवाला जानना चाहता है कि कोई है, जिनसे वह संतुष्ट हैं? उनका उत्तर है- आपसे क्या? यकायक उनकी व्यावहारिक बुद्धि जगती है। कहीं उधार न बंद कर दे चायवाला? वह धीर गंभीर आवाज में सुनाते हैं- असंतोष ही जीवन है।
एक सज्जन उन्हें चाय का निमंत्रण देते पूछते हैं कि ऐसा क्या है असंतोष में कि वह जीवन का पर्याय है? वह शाब्दिक ज्ञान की गुगली उछालते हैं कि सारे साहित्य की प्रेरणा असंतोष है। यदि असंतोष न होता, तो रचनाकार क्यों कवि के वियोगी होने और आह से गीत उपजने की बात करता? क्यों उपन्यासकार कितने पाकिस्तान  की बात लिखता, अथवा व्यंग्यकार नारद की वीणा  की?

सामाजिक संदर्भ में कुरीतियों से असंतुष्ट व्यक्ति दहेज की हाट में अपना बेटा बेचता है। सौदेबाजी में ठगी के संदेह से वधू की हत्या के लिए वह इधर तिहाड़ के तीर्थ पर है। गांधी अंग्रेजों की पराधीनता से असंतुष्ट न होते, तो देश आजाद कैसे होता? सामाजिक या सियासी व्यवस्था से असंतोष न होता, तो क्यों अंबेडकर जैसे व्यक्ति कुहासे का सूरज बनकर उभरते या राजनीतिक दल ही बनते? इतिहास गवाह है, सत्ता पाकर कई दल संतोष के शिकार हो चुके हैं।

वह बोलने की महारत से चाय कमाने में समर्थ हैं। वह असंतोष के बीज बोकर लोगों को समझाने में सफल हैं कि इससे आम की फसल भी संभावित है। उनके पद, प्रतिष्ठा, सम्मान का जनक असंतोष का दर्शन है। यदि वह कभी संतुष्ट हुए, तो प्रगति कैसे करेंगे? उनकी तलाश ऐसी आदर्श स्थिति की है, जब सूरज रोशनी तो दे, पर तपाए नहीं, बारिश ऐसी संयमित हो कि खेत सींचे, पर बाढ़ न आए। न प्रकृति की आदर्श स्थिति संभव है, न असंतुष्टों का संतुष्ट होना। 

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