दुख में सुमरिन सब करैं
संतों ने कहा है कि दुख में सुमिरन सब करैं, सुख में करै न कोय। भगवान दुख में ही याद आते हैं। सुख के सेलिब्रेशन से उन्हें दूर ही रखा जाता है। सेमेस्टर सिस्टम या मंथली या वीकली एग्जाम से पहले के जमाने...
संतों ने कहा है कि दुख में सुमिरन सब करैं, सुख में करै न कोय। भगवान दुख में ही याद आते हैं। सुख के सेलिब्रेशन से उन्हें दूर ही रखा जाता है। सेमेस्टर सिस्टम या मंथली या वीकली एग्जाम से पहले के जमाने में छात्रों को परीक्षा के वक्त ही अपने नोट्स याद आते थे- कहां रख दिए यार, यहीं तो रखे थे। हालांकि शिक्षक और माता-पिता कह-कहकर थक जाते थे कि बेटा पढ़ाई कर लो। पर बेटे थे कि यार-दोस्तों के साथ मस्ती करने निकल जाते थे। इसीलिए पढ़ाई-लिखाई के मामले में बेटियां आगे निकलती रहीं। यह प्रवृत्ति हमारे नेताओं में भी खूब पाई जाती है, क्योंकि उन्हें भी चुनाव के वक्त ही जनता याद आती है- गांव, कच्ची बस्तियां, झुग्गी-झोपड़ियां, सब याद आ जाती हैं। कुछ इसी तरह, नागरिकता कानून बनते ही पूरे मुल्क को संविधान याद आ गया है। पहले अदालतों में रखे होने के अलावा यह बस एक ही काम आता था कि हमारे चुने हुए प्रतिनिधि संविधान की शपथ लिया करते थे और शपथ लेने के बाद फिर उसे ताक पर रख देते थे। यह वैसे ही था, जैसे ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।
वह पुराने जमाने के गुलशन नंदा या आधुनिक जमाने के चेतन भगत के उपन्यासों की तरह नहीं था कि फुरसत के पल उसके साथ गुजारे जाएं। लेकिन अब, जहां भी धरना-प्रदर्शन हो रहा है, संविधान की प्रतियां लहराई जा रही हैं, उसका पाठ किया जा रहा है। पहले धरना-प्रदर्शन होते थे, तो बस सरकार के खिलाफ नारे लगते थे। पढ़ने के नाम पर या तो कोई प्रस्ताव पढ़ा जाता था या कोई घोषणा। बहुत ज्यादा हुआ, तो कोई सामूहिक शपथ पढ़ दी जाती थी। पर अब तो बच्चे भी अपने नोट्स, अपनी किताबें छोड़कर संविधान पढ़ रहे हैं।
लगता है कि दुख की घड़ी काफी घनी है। भगवान की तरह ही संविधान भी याद आ रहा है। कह सकते हैं कि संविधान भगवान तो नहीं है, लेकिन इस घड़ी तो यह एक तरह से भगवान ही है। भगवान दुनिया चलाता है, तो मुल्क संविधान ही चलाता है न।