तरह-तरह के सांडों का शहर
हमारे शहर में सांड यानी शारीरिक शक्ति का अतिशय सम्मान है। तभी तो गाय को दुत्कारने वाले सांड से खौफ खाते हैं। इस ताकत में अस्त्र-शस्त्र भी जुड़ें, तो सोने में सुहागा है। ऐसे हर...
हमारे शहर में सांड यानी शारीरिक शक्ति का अतिशय सम्मान है। तभी तो गाय को दुत्कारने वाले सांड से खौफ खाते हैं। इस ताकत में अस्त्र-शस्त्र भी जुड़ें, तो सोने में सुहागा है। ऐसे हर मोहल्ले की नियति एक स्वयंभू दादा का पाया जाना है। वह तू-तड़ाक, गाली-गलौज का विशेषज्ञ है। चौपाए सांड में भी यह सिफत नहीं है। अधिक से अधिक वह क्रोध में भले सिर झुकाए और सींग तान हुंकारे या दौड़ा ले, अपशब्दों से उसका ताल्लुक नहीं है। स्थानीय बाबू कभी सरकारी अधिकारी क्या रहे, अब हर बात में उसी की धौंस जमाते हैं। वह सरकार के सींग-पूंछ लगाकर संडियाने के अभ्यास में जुटे हैं। उन्होंने हमारे ऐसे दोपायों को हड़का रखा है। जब से एक असली सांड ने उन्हें दौड़ाया है, उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम है। किसी भी नकल की पोल खुलना, अपमान के साथ अवसाद का जनक भी है।
दादा की खामोशी से पूरे मोहल्ले में सन्नाटा है। न उसका किसी को अकारण चुनौती देने का शोर और न गालियों की गूंज, जैसे मिठाई के पास मक्खी नदारद हो। अचानक, दादा को कैसे सांप सूंघ गया है? ऐसा तो नहीं कि असली के सामने नकली नर्वस है? परीक्षा के पल किसके नहीं आते हैं?
कभी-कभी हमें लगता है कि समाज में सांड ही नहीं, इंसानी सांड भी आवश्यक हैं। एक से गो-वंश चलता है, दूसरे से पुलिस की रोजी-रोटी। मानवीय श्रेणी के सांड़ कभी नेता, कभी दादा कहलाते हैं। कानून-व्यवस्था शरीफों का दायित्व है, इनका नहीं। पुलिस इन्हें पटाकर रखती है। जब यह बाहर ‘बोर’ होते हैं, तो जेल को कृतार्थ करते हैं। वहां भी इनकी आव-भगत के पूरे प्रबंध हैं। इनका दरबार कारागार की शोभा है। दोपायों को फिलहाल छूट है, उपद्रव मचाने की। सुना है कि संवेदनशील प्रशासन द्वारा उनकी शरणगाह के निर्माण का प्लान तैयार है।
सांडों और जनता में समानता है। दोनों के कल्याण की योजनाएं कागज पर बन जाती हैं, किंतु उनके अमल का इंतजार भी तो खत्म हो।