विशाल हिमालय बन जाने का समय
सिर्फ कहने या मंत्रों से शांति नहीं आती। शांति से पहले संकल्प की सौगंध जरूरी है। हमारी तो परंपरा है- शठे शाठ्यं समाचरेत्। पूरा देश व्याकुल है और कुछ कर गुजरने की उतावली में है। घर में अगर...
सिर्फ कहने या मंत्रों से शांति नहीं आती। शांति से पहले संकल्प की सौगंध जरूरी है। हमारी तो परंपरा है- शठे शाठ्यं समाचरेत्। पूरा देश व्याकुल है और कुछ कर गुजरने की उतावली में है। घर में अगर सांप निकल आए, तो उसे मेहमानों से नहीं मरवाया जाता। अपने हाथों से लाठी मारकर उसका जहरीला जबड़ा तोड़ना पड़ता है। मैंने कहा था न कि आतंकवादी बनने के लिए पाकिस्तान होना नियति में लिखा है। शैतान के कानों में कभी जूं नहीं रेंगती। बदला कैसे, कहां और किस तरह लिया जाए, यह फैसला सेना पर छोड़ देना चाहिए। नीति यह है कि जब आतंकी वधस्थल से छलांग मारने लगें, तो उससे पहले उनका वध होना चाहिए। इसे कहते हैं बिफोर टाइम। यह शास्त्र नहीं, शस्त्र उठाने का समय है।
र्दंरदे वीरगति प्राप्त नहीं करते। कभी-कभी मारे भय के अपनी गर्दन खुद काट लेते हैं। इससे हमें क्या? अब जरा अपनी पर आता हूं। एक निवेदन सहित और वह यह कि व्यंग्यकार यदि क्षोभ और करुणा जगाने लगे, तो उसके पर नहीं काटे जाने चाहिए, वरना वह हास्य कवि हो जाएगा।
हर कली चुप, गली चुप/ घिरी शोक में/ हर बगीचे में/ पक्षी तलक मौन हैं/ क्रोध आंसू हैं/ दुख से भरे भाव हैं/ सबको मालूम है/ सिरफिरा कौन है/ बाग जीवित रहें/ फूल जिंदा रहें/ शूरता से भरे/ बागवानों की जय/ इन शहीदों की जय-जय/ जवानों की जय। यूं तो शांति के समर्थक देशों में बदला लेने को अप्रिय माना जाता है। यह भी सही है कि संतोष और सांत्वना का हथियार सिर्फ प्रतिशोध है। जो जीवित हैं, उनके लिए यह समय आंसू पोंछकर खड़े होने का है। वक्त की मांग सिर्फ संकल्प है।
आइए, सब मिलकर आतंकियों के लिए मौत की रस्सी की तरह तन जाएं। छोटे-छोटे टीलों के सामने हिमालय बन जाएं। वीर शहीदों ने वतन हमारे हवाले किया है। अब जो भी कुछ है, हमारा फर्ज है। कौन कहता है कि व्यंग्य की आंखों में आंसू नहीं आते।