सबके अपने-अपने गांधी
पिछड़े पखवाड़े गणतंत्र दिवस की झांकियों में बस गांधी ही गांधी थे। लगा, जैसे गांधी ने इस बार अपनी लाठी से बाकी सबको खदेड़ दिया हो। वैसे ही, जैसे उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ दिया था- जैसा कि कहा जाता है।...
पिछड़े पखवाड़े गणतंत्र दिवस की झांकियों में बस गांधी ही गांधी थे। लगा, जैसे गांधी ने इस बार अपनी लाठी से बाकी सबको खदेड़ दिया हो। वैसे ही, जैसे उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ दिया था- जैसा कि कहा जाता है। अबकी बार सबके अपने-अपने गांधी थे। इन झांकियों में जिसको सर्वश्रेष्ठ होने का इनाम मिला, दूसरी झांकियों के गांधी ने बताइए क्या सोचा होगा? हम क्या कम गांधी हैं? वैसे, अलीगढ़ के गांधी हत्याकांड की वह झांकी, जिसकी सबसे ज्यादा चर्चा हुई, परेड की झांकियों में शामिल न हो सकी, क्योंकि वह बाद की झांकी थी।
खैर, सब पार्टियों के अपने-अपने गांधी हो सकते हैं, तो सब राज्यों के अपने-अपने गांधी क्यों नहीं हो सकते? एक गांधी कांग्रेस के, एक भाजपा के। दूसरों के भी अपने-अपने गांधी हैं। इसी तरह, राज्यों के भी अपने-अपने गांधी हो सकते हैं। हालांकि झांकियों में गाय भी थी, लेकिन बकरी कहीं नहीं थी। जब गांधी थे, तो कायदे से बकरी भी होनी चाहिए थी।
अभी तक यह होता था कि राजनीतिक पार्टियों की बातों में गांधी होते थे। नेताओं के भाषणों में होते थे। अब उनकी रैलियों तक में गांधी होने लगे। पुतले नहीं, गांधी का रूप धरे गांधी। फिर स्कूलों में भी गांधी होते थे। बच्चों के फैन्सी ड्रेस कॉम्पिटिशनों में आजकल खूब गांधी होने लगे हैं। मेले-ठेलों में भी गांधी दिख जाते हैं, बल्कि अब तो विरोध-प्रदर्शनों में भी गांधी दिख जाते हैं। गांधी इधर फिल्मों में भी खूब आए, हालांकि सुना है कि गांधी ने खुद एक ही फिल्म देखी थी- रामराज्य। गांधी नाटकों में भी खूब हैं। लाइब्रेरियों के अलावा वह नोटों और चौक-चौराहों पर भी हैं। हालांकि झांकियों में टैंकों और मिसाइलों के साथ गांधी शानदार कॉन्ट्रास्ट बना रहे थे। अगर साथ में गोडसे भी होते, तो यह कॉन्ट्रास्ट और खिलकर सामने आता। बिना गोडसे और बिना बकरी के गांधी क्या अधूरे नहीं लगे? पता नहीं जी।