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Hindi News ओपिनियन नश्तरअब गरीबी तेरी खैर नहीं

अब गरीबी तेरी खैर नहीं

इधर सियासी दलों ने गरीबी हटाने का निश्चय किया है। इलेक्शन का ऋतु हर नेता के बरसाती मेंढक की तरह टर्राने का मौसम है। आमतौर पर यह टर्राहट विरोधियों के विरुद्ध और जन-कल्याण के मुद्दों पर होती है। इस बार...

अब गरीबी तेरी खैर नहीं
गोपाल चतुर्वेदीSun, 10 Feb 2019 11:54 PM
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इधर सियासी दलों ने गरीबी हटाने का निश्चय किया है। इलेक्शन का ऋतु हर नेता के बरसाती मेंढक की तरह टर्राने का मौसम है। आमतौर पर यह टर्राहट विरोधियों के विरुद्ध और जन-कल्याण के मुद्दों पर होती है। इस बार की टर्राहट में समान स्वर गरीबों की आमदनी बढ़ाने का है। नेताओं को सुनिए तो प्रतीत होता है कि उनकी जुबान में ही नहीं, आत्मा तक में किसान और निर्धन-हित बसा है। दीगर है कि उन्होंने हल-बैल और श्रम का स्वेद सिर्फ तस्वीरों में देखा हो। गरीबी ऐसे प्रजातांत्रिक राजघरानों को छूकर भी नहीं गई है। अर्जुन का निशाना चिड़िया की आंख थी, इनका लक्ष्य सत्ता की कुरसी है।
इनके लिए योग्यता बेमानी है, भारत जैसे भावना-प्रधान देश में। वे भी इसीलिए पुरखों का योगदान बघारने में व्यस्त हैं। ऐसों में से एक के पूर्वज ने गरीबी हटाने का व्रत लिया था। अर्थशास्त्री अब तक भ्रमित हैं कि गरीबी हटी कि गरीब? उनके खानदानी वंशज का अभिनव संकल्प हर भारतीय को न्यूनतम आय का प्रावधान है। यह क्रियान्वित करने का एक विकल्प, शब्दकोश से निर्धनता शब्द का निष्कासन है। आखिर अर्थशास्त्री किसलिए हैं? गरीबी की पात्रता का निर्णय हर रक्षा सौदे के समान क्या बिचौलिए करेंगे? जब सबकी जेबें भर रही हैं, तो इनकी भी भरने से क्यों ऐतराज? फिलहाल, उनका प्रयास वोट हथियाना है। आसमानी वादों से जमीनी प्रतिद्वंद्वी को चित करना है, वरना बड़की कुरसी न हाथ से फिसल जाए?
सत्ताधारी दल भी पारिवारिक प्रजातंत्र को कोसकर सत्ता की यथास्थिति बनाए रखने को कृत संकल्प है। बजट के सरकारी माध्यम से उसने मध्यवर्ग, किसान, मजदूर जैसी वोट की मछली फंसाने का चारा फेंका है। तुलनात्मक आंकड़ों से अपनी उपलब्धियां गिनाई हैं। कहना कठिन है कि चुनावी शतरंज में कौन सफल हो? राम मंदिर निर्माण के समान फैसला अभी जन-न्यायालय के चंगुल में है। प्रतीक्षा है इसके अंतिम निर्णय का।

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