सामूहिक पत्रों का युद्ध
भारत विविधताओं का देश है। कुछ काला अक्षर भैंस बराबर किस्म के हैं, पर इनमें भी कुछ बुद्धिजीवी हैं। बुद्धि इतनी तीव्र है कि इन्होंने इसी के सहारे अपनी जीविका चलाई है। इनकी संवेदना भी प्रबल होती है। कोई...
भारत विविधताओं का देश है। कुछ काला अक्षर भैंस बराबर किस्म के हैं, पर इनमें भी कुछ बुद्धिजीवी हैं। बुद्धि इतनी तीव्र है कि इन्होंने इसी के सहारे अपनी जीविका चलाई है। इनकी संवेदना भी प्रबल होती है। कोई रिश्तेदार भगवान को प्यारा हो, तो शायद ये उसके घर तक न झांकें, पर यदि कोई समान वैचारिक ट्रोल का सदस्य चल बसे, तो ये मोमबत्ती मार्च की अगुवाई करें। सहानुभूति और शोक प्रगट करने का यह आधुनिक अंदाज है। इनकी फोटू भी अच्छी आती है। अंधियारे के बीच टिमटिमाते आदर्शों सी मोमबत्तियां। इनका एक अन्य, पर महत्वपूर्ण योगदान है- पत्र लेखन को सामूहिक बढ़ावा देना।
नहीं तो लोगों को शिकायत रही है कि कम्पू-युग के एसएमएस़, वाट्सएप, फेस-टाइम आदि से खतों-किताबत का त्रासद वक्त आ गया है। इक्कीसवीं सदी ‘आई लव यू’ जैसे सीधे प्रणय निवेदन में विश्वास करती है, बजाय रूमानी पत्र लेखन के। आजकल ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह प्रजातंत्र के प्रमुख, प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर करते हैं। उनका आरोप है कि समाज में सहिष्णुता लगातार घट रही है। वे चिंतित हैं। अब प्रधान ही कट्टरपंथियों को रोकने के प्रभावी उपाय करें, वरना देश की अंतरराष्ट्रीय छवि का क्या होगा? इन पूर्व फिल्मी हस्तियों के पास इतने ‘अवॉर्ड’ भी नहीं हैं कि वे ‘अवॉर्ड-वापसी- 2’ का श्रीगणेश करें। इसे उपलब्धि ही कहेंगे कि उन्होंने दो-चार दृष्टांत देकर सिद्ध किया कि पूरा देश सांप्रदायिक आग में झुलस रहा है।
इनके विरोधी भी मुखर हैं। उनकी मान्यता है कि ऐसे लोग बुझे हुए बल्ब हैं, अतीत के शासन की महत्ता-माल, आज की सरकार से भी पाने को उत्सुक हैं। न इनका अतीत है, न वर्तमान। भविष्य ऐसों के विरोधी ‘देशभक्तों’ का है। पत्र-युद्ध चालू है। गनीमत है कि यह हिंसक नहीं है। हमारे फिल्मी बुद्धिजीवी लड़ाई में नहीं, उसके अभिनय में पारंगत हैं। यह अतीत बनाम वर्तमान के अपने स्वार्थ साधने का संघर्ष है, विचाधारा का नहीं।